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जैनसाहित्य और इतिहास
उत्कीर्ण किया गया। उस समय गुरुपदपर यशःकीर्ति गुरु विराजमान थे । ये सहस्रकीर्तिके शिष्य या प्रशिष्य होंगे। सहस्रकीर्तिका उल्लेख उत्कीर्ण लेखके चौथे आर्या छन्दके उत्तरार्धमें इस प्रकार किया गया है " दिनोदयं स चके गुरुगगनाभ्युदितः सहस्रकीर्तिः ” परन्तु इसका पूर्वार्ध नष्ट हो गया है । चौथे पद्यके इस उत्तरार्धके बाद ही यह वाक्य दिया हुआ है-" संवत् ११६५ वर्षे ज्येष्ठ वदि ७ सोमे सजय (ति)।" ऐसा जान पड़ता है कि यह ११६५ नहीं किन्तु १२६५ है और प्रतिलिपि करनेवालेने भूलसे दोके अंकको एक पढ़ लिया हो । यदि १२६५ ही ठीक हो तो उस समय सं० १२८४ में ज्ञानार्णवकी प्रति जिन सहस्रकीर्तिको भेट की गई थी वे यही हो सकते हैं ।
इसी लेखमें हुंकारवंशज अर्थात् हूमड़ जातिके सांगण, सिंहपुरवंशज अर्थात् नरसिंहपुरा जातिके जयता और महाभव्य प्रह्लादन इन तीन श्रावकोंका भी उल्लेख है जो मालवेसे, सपादलक्ष ( सवालख ) से और चित्रकूट (चित्तौड़ ) से आये थे, साथ ही शांभदेव नामके साधु (साहू) भी अपने भाई आमाके साथ आये थे
अत्रागमत्मालवदेशतोऽमी सपादलक्षादथ चित्रकूटात्
आभानुजेनैव समं हि साधुर्यः शांभदेवो विदितोऽथ जैनः ॥ ३१ हमने नृपुरीको मालवेका नरवर होनेका जो अनुमान किया है, उसकी भी इस उल्लेखसे पुष्टि होती है । क्योंकि इसमें उक्त श्रावकों के मालवे आदिसे खंभातमें आनेकी बात लिखी है । नृपुरीमें जाहिणीने जो प्रति लिखवाई थी वह इन लोगोंके साथ आ सकती है और उसकी दूसरी प्रति सहस्रकीर्तिके लिए गोंडलमें लिखी जा सकती है । सहस्रकीर्ति खंभात और गोंडलके आसपास विहार करते होंगे । वीसलने पूर्वोक्त प्रति वि० सं० १२८४ में लिखी थी और यह लेख सहस्रकीर्तिके शिष्य यशःकीर्तिके समयका उससे ६८ वर्ष बादका है ।
समाप्त
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