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परिशिष्ट
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२ नन्दिसूत्र में आर्य मंगु और नागहस्तिका मल्लेख
भणगं करगं झरगं पमावगं णाणदंसणगुणाणं । वंदामि अज्जमंगुं सुयसागरपारगं धीरं ॥ २८ ॥ णाणंमि दंसणंमि अ तवविणए णिच्चकालमुज्जुत्तं । अज्जं णदिलखमणं सिरसा वंदे पसन्नमणं ॥ २९ ।। वउ वायगवंसो जसवंतो अज्जणागहत्थीणं ।
वागरणकरणभंगिय कम्मपयडीपहाआणं ॥ ३० ॥ इन गाथाओंमें आर्य मंगु, नन्दिलक्षमण और आर्य नागहस्तिको नमस्कार किया गया है । मंगु और मंक्षु एक ही हैं । ये गाथायें पं० फूलचन्द्रजी शास्त्रीने तलाश करके भेजनेकी कृपा की है।
३ लोकविभागका उल्लेख तिलोयपण्णत्तिमें लेखमें यह बतलाया गया है कि कुन्दकुन्दके नियमसारमें लोक-विभागका जो उल्लेख है वह सर्वनन्दि मुनिके श० सं० ३८० में लिखे हुए लोयविभाग नामक प्राकृत ग्रन्थका होना चाहिए और इसलिए नियमसारके कर्ता श० सं० ३८० के बादके जान पड़ते हैं । उक्त लेखके छप चुकनेपर पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके " श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृषभमें पूर्ववर्ती कौन ?” शीर्षक लेखपर मेरी दृष्टि गई। उसमें उन्होंने बतलाया है कि यतिवृषभकी तिलोयपण्यत्तिमें भी लोकविभागका दो जगह उल्लेख किया गया है ---
जलसिहरे विक्खंभो जलणिहिणो जायणा दससहस्सा । एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिदिदं । अ० ४ लोयविणिच्छयगंथे लायविभागम्मि सव्वसिद्धाणं ।
ओगाहणपरिमाणं भणिदं किंचण चरिमदेहसमो। अ० ९ इससे भी यही मालूम होता है कि यतिवृषभके सामने लोकविभाग ग्रन्थ मौजूद था और संभवत वह सर्वनन्दिका ही होगा। चूंकि यतिवृषभका समय श० सं० ४०० के लगभग है, इस लिए वे अपनेसे लगभग २० वर्ष पहलेके ग्रन्थका उल्लेख अवश्य कर सकते हैं । इसी तरह यदि कुन्दकुन्द भी यतिवृषभके समकालीन हो जिसकी कि संभावना बतलाई गई है तो उनका भी अभिप्राय उक्त लोकविभागसे ही हो सकता है। लोकविभागमें चतुर्गतजीव-भेदोंका या तिर्यंचों और देवोंके चौदह और चार भेदोंका विस्तार नहीं है, यह कहना भी