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जैनसाहित्य और इतिहास
विचारणीय है। उसके छठे अध्यायका नाम ही तिर्यक्लोकविभाग है और चतुर्विध देवोंका वर्णन भी है। __'लोयविभागेसु णादव्वं' पाठपर जो यह आपत्ति की गई है कि वह बहुवचनान्त पद है, इसलिए किसी लोकविभाग नामक एक ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकता, सो इसका एक समाधान यह हो सकता है कि पाठको ' लोयविभागे सुणादव्वं' इस प्रकार पढ़ना चाहिए । 'सु' को 'णादव्वं' के साथ मिला देनेसे एकवचनान्त 'लोयविभागे' ही रह जायगा और अगली क्रिया सुणादव्वं ( सुज्ञातव्यं ) हो जायगी। पद्मप्रभने भी शायद इसी लिए उसका अर्थ 'लोक-विभागाभिधानपरमागमे' किया है।
ऐसा मालूम होता है कि सर्वनन्दिका प्राकृत लोकविभाग बड़ा होगा। सिंहसूरिने उसका संक्षेप किया है। 'व्याख्यास्यामि समासेन' पदसे वे इस बातको स्पष्ट करते हैं । इसके सिवाय आग 'शास्त्रस्य संग्रहस्त्विदं' से भी यही ध्वनित होता है - संग्रहका भी एक अर्थ संक्षेप होता है । जैसे गोम्मटसंग्गहसुत्त आदि । इसलिए यदि संस्कृत लोकविभागमें तिर्यंचोंके १४ भेदोंका विस्तार नहीं है, तो इससे यह भी तो कहा जा सकता है कि वह मूल प्राकृत ग्रन्थमें रहा होगा, संस्कृतमें संक्षेप करनेके कारण नहीं लिखा गया ।
४-लोक-विभागके अध्यायोंके नाम कुछ गलत छप गये हैं। आठवाँ अध्याय अधोलोक, नवाँ मध्यलोक व्यन्तरलोक, दसवाँ स्वर्गलोक और ग्यारहवाँ मोक्ष है।
यापनीय साहित्यकी खोज (पृ० ४१-६० ) १---विजयोदया टीकाके पृ० २ पर नीचे लिखी गाथा उद्धृत की गई है
धम्मो मंगलमुक्विड अहिंसा संजमो तवा ।
देवा वि तं नमस्संति जस्स धम्मे सया मणो ।। यह दशवैकालिककी सबसे पहली गाथा है। इससे भी निश्चित होता है कि अपराजितसूरि इन ग्रन्थोंको प्रमाण माननेवाले यापनीय संघके थे ।
२-गाथा ६ की विजयोदया-टीकामें लिखा है---" संस्कारिताभ्यन्तरतपसा इति वा असम्बद्धं । अन्तरेणापि बाह्यतपोऽनुष्ठान अन्तर्मुहूर्तमात्रेणाधिगतरत्नत्रयाणां