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जैनसाहित्य और इतिहास
न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवताभूतमेव वा । किन्त्वहद्दिव्यमूर्तीज्यासम्बन्धात्पावनोऽनलः ॥ ८८ ॥ ततः पूजाङ्गतामस्य मत्वान्ति द्विजोत्तमाः । निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजा तो न दूष्यति ॥ ८९ ॥ व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः ।
जैनरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मभिः । ९० ॥ अर्थात् अग्निमें न स्वयं कोई पवित्रता है और न देवपना; परन्तु अर्हत भगवानकी दिव्यमूर्तिकी पूजाके सम्बन्धसे वह पवित्र हो जाता है । इसलिए द्विजोत्तम अर्थात् जैन ब्राह्मण अग्निको पूजाके योग्य मानकर पूजते हैं और निर्वाणक्षेत्रोंकी पूजाके समान इस अग्निपूजामें कोई दोष भी नहीं है । व्यवहारनयकी अपेक्षा उसकी ( अमिकी ) पूजा द्विजोंके लिए इष्ट है और आजकल अग्रजन्मों या जैन ब्राह्मणोंको यह व्यवहारनय व्यवहारमें लाना चाहिए।
इससे साफ मालूम होता है कि वैदिक धर्मकी आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिण अग्नियोंकी पूजाको ही कुछ परिवर्तित रूपमें जैनधर्ममें स्थान दिया गया है, पर इसके साथ ही जैन धर्मकी मूल भावनाओंकी रक्षा कर ली गई है। उपर्युक्त श्लोकोंके 'अद्यत्वे ' ( आजकल या वर्तमान समयमें ) और 'व्यवहारनयोपक्षा' शब्द ध्यान देने योग्य हैं । इनसे ध्वनित होता है कि यह अमिपूजा पहले नहीं थी, परन्तु आचार्य अपने समयके लिए उसे आवश्यक बतलाते हैं और व्यवहार नयसे कहते हैं कि इसमें कोई दोष नहीं है। आचार्य सोमदेवने अपने यशास्तिलकमें लिखा है
यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूपणम् ।
सर्वमेव हि जैनानां प्रमाण लौकिको विधिः । अर्थात् वे सभी लौकिक विधियाँ या क्रियायें जैनोंके लिए मान्य हैं जिनमें सम्यक्त्वकी हानि न होती हो और व्रतोंमें कोई दोष न लगता हो ।
इस सूत्रके अनुसार ही अग्निपूजा और यज्ञोपवीतकी विधियोंको जैनधर्ममें स्थान मिल सकता है।
१२-जैनधर्म अनीश्वरवादी है संसारमें सबसे अधिक संख्या ईश्वरवादियोंकी हैं। वर्तमान दृष्ट संसारके लगभग ढाई अरब मनुष्यों में ऐसे ही लोग अधिक हैं जो इस सृष्टिका कर्ता हर्ता