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जैनसाहित्य और इतिहास
विक्रमकी पहली शताब्दिके बने हुए प्राकृत पउमचरियमें भी ठीक इसी आशयकी एक गाथा है-.
वणाणसमुप्पत्ती तिण्हं पि सुया मए अपरिसेसा ।
यत्तो कहेह भयवं उप्पत्ती सुत्तकंठाणं ॥ ६५ इन दोनों पद्योंका 'सूत्रकण्ठ' या 'सुत्तकंठ' शब्द ध्यान देने योग्य है जो ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त किया गया है । यह शब्द ब्राह्मणों और उनके जनेऊके प्रति आदर या श्रद्धा प्रकट करनेवाला तो कदापि नहीं है, इससे तो एक प्रकारकी तुच्छता या अवहेला ही प्रकट होती है । ग्रन्थकर्ता आचार्योंके भाव यदि यज्ञोपवीतके प्रति अच्छे होते, तो वे इसके बदले किसी अच्छे उपयुक्त शब्दका प्रयोग करते । इससे अनुमान होता है कि जब पउमचरिय और पद्मपुराण लिखे गये थे, तब जैनधर्ममें यज्ञोपवीतको स्थान नहीं मिला था।
२ यदि जनेऊ धारण करनेकी प्रथा प्राचीन होती तो उत्तर भारत और गुजरात आदिमें इसका थोड़ा बहुत प्रचार किसी न किसी रूपमें अवश्य रहता, उसका सर्वथा लोप न हो जाता । हम लोग पुराने रीति रवाजोंकी रक्षा करनेमें इतने कट्टर हैं कि बिना किसी बड़े भारी आघातके उन्हें नहीं छोड़ सकते। यह हो सकता है कि उन रीति-रवाजोंका कुछ रूपान्तर हो जाय परन्तु सर्वथा लोप होना कठिन है । इससे मालूम होता है कि उत्तर भारत और गुजरात आदिमें इसका प्रचार हुआ ही नहीं और शायद आदिपुराणका प्रचार हो चुकनेपर भी यहाँके लोगोने इस नई प्रथाका स्वागत नहीं किया।
अबसे लगभग तीन-सौ वर्ष पहले आगरेमें पं० बनारसीदासजी एक बड़े भारी विद्वान् हो गये हैं जिनके नाटक-सामयसार और बनारसी-विलास नामक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। उन्होंने 'अर्द्ध-कथानक ' नामकी एक पद्यबद्ध आत्मकथा लिखी है, जिसमें उनकी ५२ वर्ष तककी मुख्य मुख्य जीवन-घटनायें लिपिबद्ध हैं । एक बार बनारसीदासजी अपने एक मित्र और ससुरके साथ एक चोरोंके गाँवमें पहुँच गये । वहाँ रक्षाका और कोई उपाय न देखकर उन्होंने उसी समय धागा बँटकर जनेऊ पहिन लिये और ब्राह्मण बन गये !
सूत कादि डोरा बट्यौ, किए जनेऊ चारि । पहिरे तीनि तिहूँ जने, राख्यो एक उबारि ॥