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छानबीन
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माटी लीनी भूमिसों, पानी लीनों ताल ।
बिप्र भेष तीनों बनें, टीका कीनों भाल ।। इस उपायसे वे बच गये, चोरोंके सर्दारने ब्राह्मण मानकर उन्हें छोड़ ही न दिया, अभ्यर्थना भी की और एक साथी देकर आगे तक पहुंचा दिया। __बनारसीदासजी जैनधर्मके बड़े मर्मज्ञ थे । यदि उन्हें इस क्रियापर श्रद्धा होती, तो वे अवश्य ही जनेऊधारी होते । इससे पता चलता है कि उस समय आगरे आदिके जैनी जनेऊ नहीं पहिनते थे ।
३ पद्मपुराण आदि कथा-ग्रन्थोंमें जिन जिन महापुरुषोंके चरित लिखे गये हैं, उनमें कहीं भी ऐसा नहीं लिखा कि उनका यज्ञोपवीत-संस्कार हुआ या उन्हें जनेऊ पहिनाया गया, जब कि उनकी विद्यारम्भ, विवाह आदि क्रियाओंका वर्णन किया गया है । कई महा पुरुषोंने अनेक प्रसंगोंपर जिनेन्द्रदेवकी पूजा की है, वहाँ अनेक वस्त्राभूषणोंका वर्णन भी किया गया है, पर जनेऊका कहीं भी उल्लेख नहीं है।
४ श्वेताम्बर सम्प्रदायके साहित्यमें भी यज्ञोपवीत-क्रियाका विधान नहीं है। श्रीवर्द्धमानसूरिके 'आचार-दिनकर' नामके एक श्वेताम्बर ग्रन्थमें जिनोपवीतका वर्णन है, परन्तु वह बहुत पीछेका, वि० सं० १५०० के लगभगका, ग्रन्थ है
और संभवतः दिगम्बर सम्प्रदायके आदिपुराणके अनुकरणपर ही बनाया गया है । श्वेताम्बर समाजमें जनेऊ पहननेका रिवाज भी नहीं है । पहलेका भी कोई उल्लेख नहीं मिलता।
संसारका कोई भी धर्म, सम्प्रदाय या पन्थ अपने समयके और परिस्थितियोंके प्रभावसे नहीं बच सकता। उसके पड़ोसी धमाका कुछ न कुछ प्रभाव उसपर अवश्य पड़ता है । वह उनके बहुतसे आचारोंको अपने ढंगसे अपना बना लेता है और इसी प्रकार उसके भी बहुतसे आचारोंको पड़ोसी धर्म ग्रहण कर लेते हैं। जैनधर्मकी अहिंसाका यदि अन्य वैष्णव आदि सम्प्रदायोंपर प्रभाव पड़ा है-उसे उन्होंने समधिक रूपमें ग्रहण कर लिया है, तो यह असंभव नहीं है कि जैन धर्मने भी उनके बहुतसे आचारोंको ले लिया हो, अवश्य ही जैनधर्मके मूल तत्त्वोंके साथ सामंजस्य करके । मूलतत्त्वोंके साथ वह सामंजस्य किस प्रकार किया जाता है, इसके समझनेके लिए आदिपुराणका ४० वाँ पर्व देखना चाहिए जहाँ वैदिक ग्रन्थोंके समान अमिकी पूजा विहित बतलाई गई है।
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