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छान-बीन
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११-यज्ञोपवीत और जैनधर्म उपनयन या यज्ञोपवीत धारण सोलह संस्कारोंमेंसे एक मुख्य संस्कार है । इस शब्दका अर्थ समीप लेना है ।--उप-समीप, नयन लेना। आचार्य या गुश्के निकट वेदाध्ययनके लिए लड़केको लेना अथवा ब्रह्मचर्याश्रममें प्रवेश कराना ही उपनयन है। इस संस्कारके चिह्नस्वरूप लड़केकी कमरमें पूँजकी डोरी बाँधनेको मौजीबन्धन और गलेमें सूतके तीन धागे डालनेको उपवीत, यज्ञोपवीत या जनेऊ कहते हैं-यज्ञेन संस्कृतं उपवीतं यज्ञोपवीतम् । यह एक शुद्ध वैदिक क्रिया या आचार है और अब भी वर्णाश्रम धर्मके पालन करनेवालोंमें चालू है, यद्यपि अब गुरुगृहगमन और वेदाध्ययन आदि कुछ भी नहीं रह गया है।
यज्ञोपवीत नामसे ही प्रकट होता है कि यह जैन क्रिया नहीं है। परन्तु भगवजिनसेनने अपने आदिपुराणमें श्रावकों को भी यज्ञोपवीत धारण करनेकी आज्ञा दी है और तदनुमार दक्षिण तथा कर्नाटकके जैन गृहस्थों में जनेऊ पहना भी जाता है। इधर कुछ समयसे उनकी देखादेखी उत्तर भारतके जैनी भी जनेऊ धारण करने लगे हैं। परन्तु हमारी समझमें यह क्रिया प्राचीन नहीं है, संभवतः नवीं दसवीं शताब्दि के लगभग या उसके बाद ही इसे अपनाया गया है और शायद
आदिपुराण ही सबसे पहला ग्रन्थ है जिसने यज्ञोपवीतको भी जैनधर्ममें स्थान दिया है । इसके पहलेका और कोई भी ऐसा ग्रन्थ अबतक उपलब्ध नहीं हुआ है जिसमें यज्ञोपवीत धारण आवश्यक बतलाया हो। उपलब्ध श्रावकाचारोंमें सबसे प्राचीन स्वामी समन्तभद्रका रत्नकरण्ड है, पर उसमें यज्ञोपवीतकी कोई भी चर्चा नहीं की गई है। अन्यान्य श्रावकाचार आदिपुराणके पीछेके और उसीका अनुधावन करनेवाले हैं अतएव इस विषयमें उनकी चर्चा व्यर्थ है ।
१ आचार्य रविषेणका पद्मपुराण आदिपुराणसे कोई डेड़ सौ वर्ष पहलेका है। उसके चौथे पर्वका यह श्लोक देखिए
वर्णत्रयस्य भगवन् संभवो मे त्वयोदितः ।
उत्पत्तिः सूत्रकण्ठानां ज्ञातुमिच्छामि साम्प्रतम् ।। ८७ अर्थात् राजा श्रेणिक गौतम स्वामीसे कहते हैं कि भगवन् , आपने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की उत्पत्ति तो बतला दी, पर अब मैं सूत्र-कंठोंकी (गलेमें सूत लटकानेवाले ब्राह्मणोंकी) उत्पत्ति जानना चाहता हूँ।