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छानबीन
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विधाता एक अदृश्य शक्ति विशेषको मानते हैं और वही ईश्वर, खुदा या गॉड आदि नामोंसे अभिहित होता है । हिन्दू, ईराणी, यहूदी, ईसाई आदि सभी धर्म ईश्वरके उपासक हैं और इन्हींके अनुयायियोंकी संख्या सबसे अधिक है। जीते जागते बचे खुचे धर्मों में जैन और बौद्ध ये दो ही धर्म ऐसे हैं जो वास्तवमें अनीश्वरवादी हैं, अर्थात् किसी ईश्वर विशेषके अस्तित्वको स्वीकार नहीं करते
और इस भारतवर्ष में तो केवल जैनधर्म ही अनीश्वरवादके अस्तित्वको टिकाये हुए है । बौद्ध धर्म यहाँ नाम मात्रको है । जो कुछ है यहाँसे बाहर चीन, जपान, सयाम आदि देशोंमें है । जैन और बौद्ध धर्म इस अनीश्वरवादके कारण ही ' नास्तिक' कहलाते हैं । यद्यपि बहुतसे विद्वानोंके मतसे जो लोग परलोकको नहीं मानते हैं, वे ही 'नास्तिक' कहे जाने चाहिए और इस दृष्टिसे जैनधर्म इस नास्तिकतासे मुक्त हो जाता है, परंतु नास्तिकताका प्रचलित अर्थ ईश्वरका न मानना ही है । सर्व साधारण लोग इस शब्दको इसी अर्थमें व्यवहत करते हैं, इस कारण यह कहना असंगत नहीं कि जैनधर्म अनीश्वरवादी भी है और नास्तिक भी है।
परंतु आजकलके जैनधर्मानुयायी अपनेको 'नास्तिक' नहीं कहलाना चाहते । इसे वे एक अपमानजनक शब्द समझते हैं और इस कारण उनके व्याख्यानों और लेखोंमें इस विषयका अकसर प्रतिवाद देखा जाता है । वे बड़ी बड़ी युक्तियाँ देकर सिद्ध किया करते हैं कि जैनधर्म नास्तिक नहीं है वह
आस्तिक है । कुछ समय पहले तो इस विषयकी चर्चा और भी जोरोंपर थी। परंतु हमारी समझमें यदि लोग ' नास्तिक ' कहनेसे ईश्वरको न माननेवाला ही समझते हैं, अथवा ' नास्तिको वेदनिन्दकः ' इस वाक्यके अनुसार वेदोंको न माननेवाला ' नास्तिक' पद-वाच्य है, तो जैनोंको 'नास्तिक' कहनेसे चिढ़नेकी आवश्यकता नहीं है, वरन् इसे उसी प्रकार अपना गौरव बढ़ानेवाला समझना चाहिए जिस तरह वे अपने अन्य ' स्याद्वाद ' आदि मुख्य सिद्धान्तोंको समझते हैं।
बहुतसे जैनधर्मानुयायियोंको 'नास्तिक' के समान ‘अनीश्वरवादी' बनना भी नापसन्द है । वे इस कलंक (?) के टीकेको भी अपने मस्तकमें नहीं लगाये रखना चाहते । इस टीकेको पोंछ डालनेका-कमसे कम फीका कर डालनेकाप्रयत्न अभी ही नहीं, बहुत समयसे हो रहा है । इस प्रयत्नमें थोड़ी बहुत