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छान-बीन
कहना पर्याप्त होगा कि हिन्दूधर्मके प्रभावसे जैनोंने अपने अनीश्वरवादपर ऐसा मुलम्मा चढ़ा दिया है, कि वह साधारण दृष्टिसे देखनेवालोंको ईश्वरवाद जैसा ही प्रतीत होता है । केवल विशेषज्ञ ही यह जान सकते हैं कि जैनधर्ममें वस्तुतः ईश्वरके लिए कोई स्थान नहीं है।
ईश्वर शब्दके वास्तविक अर्थ हैं, ऐश्वर्यशाली, वैभवशाली, शक्तिशाली, स्वामी, अधिकारी, कर्तृत्ववान् आदि । इह लोकमें जो दर्जा स्वतंत्र सम्राट या महाराजाका है, वही परलोकमें ईश्वर या परमेश्वरका है। परंतु जैनधर्म इहलोक या परलोकमें इस प्रकारके किसी सत्ताधीशको माननेसे सर्वथा इंकार करता है। उसका ईश्वर किसी साम्राज्यका स्वेच्छाचारी शासक तो क्या होगा, किसी प्रजातंत्र देशका प्रेसीडेण्ट भी नहीं । वह एक ईश्वरको भी तो नहीं मानता है। उसके यहाँ यदि ईश्वर है तो वह एक नहीं, लाखों करोड़ों असंख्य अनंतकी संख्या में है । अर्थात् जैनमतानुसार इतने ईश्वर हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती और आगे भी वे बराबर इसी अनंत संख्यामें अनंत कालतक होते रहेंगे, क्योंकि जैनसिद्धान्तके अनुसार प्रत्येक आत्मा अपनी अपनी स्वतंत्र मत्ताको लिये हुए मुक्त हो सकता है। आज तक ऐसे अनंत आत्मा मुक्त हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे । ये मुक्त जीव ही जैनधर्मके ईश्वर हैं । इन्हीमेंसे कुछ मुक्तात्माओंको जिन्होंने मुक्त होनेके पहले संसारको मुक्तिका मार्ग बतलाया था जैनधर्म तीर्थकर मानता है ।
जैनधर्मके ये मुक्तात्मा या ईश्वर संसारसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते । न सृष्टिसंचालन कार्यमें उनका कोई हाथ है, न वे किसीका भला बुरा कर सकते हैं, न किसीपर कभी प्रसन्न होते हैं और न अप्रसन्न । न उनके पास कोई ऐसी सांसारिक वस्तु है जिसे ऐश्वर्य, वैभव या अधिकारके नामसे पुकारा जा सके । न ये किसीका न्याय करते हैं, और न किसीके अपराधोंकी जाँच । जैनसिद्धान्तके अनुसार जीव स्वयं ही सुख-दुख पाते हैं। ऐसी दशा मुक्तात्मा ईश्वरोंको इन सब झंझटोंमें पड़नेकी जरूरत भी नहीं है।
गरज यह है कि जैनधर्ममें माने हुए मुक्तात्माओंका उस ईश्वरत्वसे कोई सम्बन्ध नहीं है जिसे कि सर्वसाधारण लोग संसारके कर्ता हा विधाता ईश्वरमें कल्पना किया करते हैं । उस ईश्वरत्वका तो उल्टा जैनधर्मके तर्क-ग्रन्थों में खूब जोरोंके साथ खण्डन किया गया है और इस तरहकी प्रबल युक्तियों के साथ किया गया है कि उसे पढ़कर बड़े से बड़े ईश्वरवादियोंकी भी श्रद्धा डगमगाने लगती