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श्रुतसागरसूरि
भी दी हैं । सबसे ज्यादा आक्रमण इन्होंने मूर्तिपूजा न करनेवाले लोंकागच्छ ( ढूँढ़ियों ) पर किया है । ज़रूरत गैरजरूरत जहाँ भी इनकी इच्छा हुई है, ये उनपर टूट पड़े हैं । इसके लिए उन्होंने प्रसंगकी भी परवा नहीं की । उदाहरण के तौरपर हम उनकी षट्पाहुइटीकाको पेश कर सकते हैं । षट्पाहुड़ भगवत्कुन्दकुन्दका ग्रन्थ है जो एक परमसहिष्णु, शान्तिप्रिय और आध्यामिक विचारक थे। उनके ग्रन्थोंमें इस तरहके प्रसंग प्राय: है ही नहीं कि उनकी टीका में दूसरोपर आक्रमण किये जा सकें । परन्तु जो पहले से ही भरा बैठा हो, वह तो कोई न कोई बहाना ढूँढ ही लेता है । दर्शन - पाहुड़की मंगलाचरण के बादकी पहली ही गाथा है
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दंसणमूलो धम्मो उवइट्टो जिणवरेंहिं सिस्साणं । तं साऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो ॥
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इसका सीधा अर्थ यह है कि जिनदेवने शिष्यों को उपदेश दिया है कि धर्म दर्शनमूलक है, इसलिए जो सम्यग्दर्शनसे रहित है उसकी वंदना नहीं करनी चाहिए । अर्थात् चरित्र तभी वन्दनीय है जब वह सम्यग्दर्शनसे युक्त हो ।
इस सर्वथा निरुपद्रव गाथाकी टीका में कलिकालसर्वज्ञ स्थानकवासियोंपर बुरी तरह बरस पड़ते हैं और कहते हैं, देर्शनहीन कौन हैं ? जो तीर्थकर प्रतिभा नहीं मानते, उसे पुष्पादिसे नहीं पूजते । जो कहते है व्रतों की क्या जरूरत है, आत्माका ही पोषण करना चाहिए, उसे दुख न देना चाहिए । मयूरकी पिच्छि सुन्दर नहीं होती, सूतकी सुन्दर होती है, शासनदेवोंको न पूजना चाहिए, आत्मा ही देव है, दूसरा कोई नहीं। वीर भगवानके बाद तीन नहीं आठ केवली हुए हैं, महापुराणादि
१ कोऽसौ दर्शनहीन इति चेत् तीर्थंकरपरमदेवप्रतिमां न मानयन्ति, न पुष्पादिना पूजयन्ति । ... मिथ्यादृष्टयः किल वदन्ति व्रतैः कि प्रयोजनं, आत्मैव पोषणीयः, तस्य दुःखं न दातव्यं । मयूरपिच्छं किल रुचिरं न भवन्ति, सूत्रपिच्छं रुचिरं । ... . शासनदेवता न पूजनीयाः आत्मैव देवो वर्तते, अपरः कोपि देवो नास्ति । वीरादनन्तरं किल के वालिनोऽष्ट जाता न तु त्रयः, महापुराणादिकं किल विकथा इत्यादि ये उत्सूत्रं मन्वते ते मिथ्यादृष्टयः चावकाः नास्तिका । यदि जिनसूत्रमुलंघते तदाऽऽस्तिकैर्युक्तिवचनेन निषेधनीयाः । तथापि यदि कदाग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समर्थैरास्तिकैरुपानद्भिः गुथलिप्ताभिर्मुखे ताडनीयाः तत्र पापं नास्ति ।