Book Title: Jain Sahitya aur Itihas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 579
________________ छान-बीन ५५१ सनहस्ताभिर्यवनीभिर्बनपुष्पमालाधारिणीभिः परिवृत इत एवागच्छति प्रियवयस्य ।" अर्थात् जंगली फूलोंकी माला धारण करनेवाली और हाथोंमें धनुष रखनेवाली यवनियोंसे घिरा हुआ राजा इधर ही आ रहा है। बौद्धोंके अंगुत्तर निकायमें कौमारभृत्य जीवककी कथा है, जो बड़ा भारी वैद्य था और जिसे राजा बिम्बसार ( श्रोणिक ) के पुत्र अभयकुमारने पाला-पोसा था। तक्षशिलासे वैद्य-विद्याको पढ़कर और आचार्य होकर जब यह लौटा, तो इसने रास्ते में साकेत ( अयोध्या ) के नगरसेठकी भार्याका इलाज करके उसे एक कठिन रोगसे मुक्त किया । इससे प्रसन्न होकर स्वयं सेठानीने, उसके पुत्रने, बहूने और सेठने उसे चार चार हजार रुपये दक्षिणा दी, साथ ही सेठने एक रथ, एक दास और एक दासी भेंट की। इससे मालूम होता है कि राजा श्रेणिकके समयमें दासी-दास भी धन-दौलतके समान ही भेट मेहनताने आदिमें दिये जाते थे। उस समय जो जितना बड़ा आदमी होता था, उसके उतने ही अधिक दासी-दास होते थे। थेरी-गाथाकी अट्ठ-कथा ( काश्यप सैन्यासीकी कथा ) में पिप्पली माणवकके वैभवका वर्णन करते हुए लिखा है उसके यहाँ १२ योजनतक फैले हुए खेत, १४ हाथियोंके झुण्ड, १४ घोड़ोंके झुण्ड, १४ रथोंक झुण्ड और १४ दासोके ग्राम थे । ये दास गुलाम ही थे । ___ पूर्वकालमें भारतवर्षमें दास-विक्रय होता था, इसके अपेक्षाकृत आधुनिक प्रमाण भी अनेक मिलते हैं ईस्वी सन् १३१७ में प्रसिद्ध भारतयात्री इब्नबतूताने बंगालका वर्णन करते हुए लिखा है कि “ यहाँ तीस गज लम्बे सूती वस्त्र दो दीनारमें और सुन्दर दासी एक स्वर्ण दीनारमें मिल सकती है। मैंने स्वयं एक अत्यन्त रूपवती 'आशोरा' नामक दासी इसी मूल्यमें तथा मेरे एक अनुयायीने छोटी अवस्थाका ‘लूलू' नामक एक दास दो दीनारमें मोल लिया थी ।” एक जगह वह और लिखता है "वजीरने दस दासियाँ मेरे लिये भेज दी। गन्दी तथा असभ्य १ मूल वाक्य प्राकृतमें हैं । पाठकोंके सुभीतेके लिए यहाँ संस्कृतच्छाया ही दी है। २ देखो बुद्धचर्या पृष्ठ २९७-३०७ । ३ बुद्धचर्या पृष्ठ ४१-४२ । ४ देखी काशीविद्यापीठद्वारा प्रकाशित इन्नबतूताकी भारतयात्रा पृ० ३६ ।

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