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छान-बीन
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वित्त-स्त्रीसे तात्पर्य धनसे खरीदी हुई दासी होना चाहिए। इसका अर्थ वेश्या भी किया जाता है, परन्तु अब मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि दासी अर्थ ही अधिक उपयुक्त है । शब्द-कोशों में वेश्याके वारयोषित, गणिका, पण्यस्त्री आदि नाम मिलते हैं, जिनके अर्थ समूहकी, बहुतों की, या बाजारू औरत होता है, पर धन- स्त्री या वित्त-स्त्री जैसा नाम कहीं नहीं मिला । गृहस्थ अपनी पत्नी और दासीको भोगता हुआ भी चतुर्थ अणुव्रतका पालक तभी माना जा सकता है, जब दासी गृहस्थकी जायदाद मानी जाती हो । जो लोग इस व्रतकी उक्त व्याख्यापर नाक भौंह सिकोड़ते हैं वे उस समयकी सामाजिक व्यवस्था से अनभिज्ञ हैं, जिसमें कि ' दासी' एक परिग्रह या जायदाद थी । अवश्य ही वर्तमान दृष्टिकोणसे जब कि दास प्रथाका अस्तित्व नहीं रहा है और दासी किसीकी जायदाद नहीं रही है, ब्रह्माणुव्रत में उसका ग्रहण निषिद्ध माना जाना चाहिए ।
कौटिलीय अर्थशास्त्र में दास-कल्प नामका एक अध्याय ही है' जिससे मालूम होता है कि दास-दासी खरीदे जाते थे, गिरवी रक्खे जाते थे और धन पानेपर मुक्त कर दिये जाते थे । दासियोंपर मालिकका इतना अधिकार होता था कि वह उनमें सन्तान भी उत्पन्न कर सकता था और उस दशा में वे गुलामीसे छुट्टी पा जाती थीं । देखिए
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स्वामिनोऽस्यां दास्यां जातं समातृकमदासं विद्यात् ॥ ३२ ॥
गृह्या चेत्कुटुम्बार्थचिन्तनी माता भ्राता भगिनी चास्याः दास्याः स्युः || ३३॥ - धर्मस्थीय तीसरा अधिकरण अर्थात् — यदि मालिक से उसकी दासी में सन्तान उत्पन्न हो जाय तो वह सन्तान और उसकी माता दोनों ही दासतासे मुक्त कर दिये जायँ । यदि वह स्त्री कुटुम्बार्थचिन्तन होने से ग्रहण कर ली जाय, भार्या बन जाय, तो उसकी माता, बहिन और भाइयों को भी दासता से मुक्त कर दिया जाय ।
इन सूत्रोंकी रोशनी में सोमदेवसूरिका ब्रह्माणुव्रतका विधान अयुक्त नहीं मालूम होता । स्मृति-ग्रन्थोंमें दासोंका वर्णन बहुत विस्तार से किया गया है । मनुस्मृति में सात प्रकारके दास बतलाये हैं
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ध्वजाहृतो भुक्तदासो गृहजः क्रीतदत्रिमौ ।
पौत्रको दण्डदासश्च सप्तैते दासयोनयः ॥ ४८-१५
१-देखो, पं० उदयवीर शास्त्रीके अनुवाद सहित कौटिलीय अर्थशास्त्र द्वि० भा०, पृ० ६५-७० ।