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जैनसाहित्य और इतिहास
होनेके कारण इस देश में लूटकी दासियाँ खूब सस्ती मिलती हैं । परन्तु जब सीखी सिखाई ही सस्ती मिल जाती हैं, तब फिर ऐसोंको कौन ले ? साधारण दासीका मूल्य ८ टंकसे अधिक न था और पत्नी बनाने योग्य दासी १५ टंकको मिलती थी।” अर्थात् उस समय दास-दासी अन्य चीज़ोंके ही समान मोल मिल सकते थे ।
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बंगला मासिक भारतवर्ष ( वर्ष ११, खण्ड २, अंक ६, पृ० ८४७ ) में प्रो० सतीशचन्द्र मित्रका 'मनुष्य विक्रय-पत्र' नामक एक लेख छपा है, जिसमें दो दस्तावेजोंकी नकल दी है । (१) प्रायः २५० वर्ष पहले बरीसाल के एक कायस्थने सात छोटे बड़े स्त्री पुरुषों को इकतीस रुपये में बेचा था । यह दस्तावेज फाल्गुन १३१९ ( बंगला संवत् ) के 'ढाका - ख्यूि ' में प्रकाशित हुई है । (२) दूसरी दस्तावेज १६ पौष ११९४ (बं० सं०) दिसम्बर सन् १७८८ की लिखी हुई है । उसका सार यह है कि अमीराबाद परगने / फरीदपुर - जिला ) के गोयलाग्रामनिवासी रामनाथ चक्रवर्तीने अपने पद्मलोचन नामक सात वर्षकी उम्र के दासको दुर्भिक्षवश अन्नवस्त्र न दे सकने के कारण २) पण लेकर राजचन्द्र सरकारको बेच दिया । यह सदैव सेवा करेगा | इसे अपनी दासीके साथ ब्याह देना । ब्याहसे जो सन्तान होगी भारत में भी यही दास-दासी कर्म करेगी । यदि यह कभी भाग जाय तो अपनी क्षमता से पकड़वा लिया जाय । यदि मुक्त होना चाहे तो २२ सीसा ( ? ) और रसून ( लशुन ? ) देकर मुक्त हो जाय । दस्तावेज लिख दी कि सनद रहे ।
इन प्रमाणोंसे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वकालमें दास-दासी एक तरहकी जायदाद ही थी जो खरीदी बेची जा सकती है । वे स्वयं अपने मालिक न थे, इसलिए उनकी गणना परिग्रहमें की गई है । यह सच है कि अमेरिका यूरोप आदि देशोंके समान भारतमें गुलामोंपर उतने भीषण अत्याचार न होते थे जिनका वर्णन पढ़कर रोगटे खड़े हो जाते हैं और जिनको स्वाधीन करने के लिए अमेरिका में (सन् १८६० ) चार पाँच वर्षतक जारी रहनेवाला ' सिविल वार' हुआ था । फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारतवर्ष में भी गुलाम रखने की प्रथा थी और उनकी हालत लगभग पशुओं जैसी ही थी । सन् १८५५ में ब्रिटिश पार्लमेंटने एक नियम बनाकर इसे बंद किया है । यद्यपि इनके अवशेष
१ गुलामीका परिचय प्राप्त करने के लिए बुकर टी० वाशिंगटनका 'आत्मोद्धार ' और मिसेज एच० वी० स्टोकी लिखी हुई 'टामकाकाकी कुटिया' आदि पुस्तकें पढ़नी चाहिए ।