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जनसाहित्य और इतिहास
अर्थात् - ध्वजाहृत ( संग्राममें जीता हुआ), भुक्तदास ( भोजनके बदले रहनेवाला), गृहज ( दासीपुत्र ), क्रीत ( खरीदा हुआ), दत्रिम ( दूसरेका दिया हुआ), पैत्रिक ( पुरखोंसे चला आया । और दण्डदास ( दण्डके धनको चुकानेके लिए जिसने दासता स्वीकार की हो) ये सात प्रकारके दास हैं ।
पूर्वकालमें दास और शूद्रका एक ही अर्थ था । यद्यपि सभी शूद्र दास नहीं होते थे परन्तु यह निश्चय है कि सभी दास शूद्र गिने जाते थे। मनुस्मृतिमें जो यह लिखा है कि शूद्रका निजका धन कुछ भी नहीं है, उसका मालिक उसके धनको खुशीसे ले सकता है, सो इस शूद्रका अर्थ दास ही है। __ न हि तस्यास्ति किञ्चित्स्वं भर्तृहार्यधनो हि सः ॥ १७ ॥ -अध्याय ८ और भी लिखा है
शूद्रं तु कारयेद्दास्यं क्रीतमक्रीतमेव वा ।
दास्यायैव हि सृष्टोऽसौ ब्राह्मणस्य स्वयंभुवा ॥ -अ० ८-४१३ अर्थात्-शूद्र चाहे खरीदा हुआ हो और चाहे विना खरीदा, उससे दासता करानी चाहिए । क्योंकि स्वयंभु ब्रह्माने उसे दासताके लिए ही बनाया है ।
याज्ञवल्क्य स्मृतिके टीकाकार विज्ञानेश्वर ( १२ वीं सदी) ने पन्द्रह प्रकारके दास बतलाये हैं जिनमें ऊपर बतलाये हुए तो हैं ही, उनके सिवाय जुएमें जीते हुए, अपने आप मिले हुए, दुर्भिक्षके समय बचाये हुए, आदि अधिक हैं । ये दास जो कुछ कमाते थे उसपर उनके स्वामीका ही अधिकार होता था। __ भारतके सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेदमें भी दासी-दासोंके दान देनेका उल्लेख मिलता है।
-( ऋ० ८-१९-१६) भड़ोंच बहुत पुराना बन्दरगाह है। बहुत प्राचीन कालस यहाँसे विदेशोंके साथ आयात-निर्यात् व्यापार होता रहा है । इण्डियन एण्टिक्वेरीके वॉल्यूम VIII में यूनान आदि देशोसे जो जो चीजें आती थीं और यहाँसे जो जो चीजें जाती थीं उनका एक कोष्टक प्रकाशित हुआ है। उससे मालूम होता है कि उस समय सुन्दर लड़कियाँ भी यहाँ विदेशोंसे बेचनेके लिए लाई जाती थीं । संस्कृत नाटकोंमें राजाओंके समीप रहनेवाली यवनियोंका जो वर्णन आता है, वे शायद इसी तरह खरीदकर लाई हुई सुन्दरियाँ होती थीं। महाकवि कालिदासके शकुन्तला नाटक ( अंक २) में राजाका आगमन सूचित करते हुए लिखा है-“एष वाणा.