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छान-बीन
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सुवर्णादिः । घण्ण धान्यं ब्रीह्यादिः । कुप्प कुप्यं वस्त्रं । भंड भाण्डशब्देनहिंगुमरिचादिकमुच्यते । द्विपदशब्देन दासदासीभृत्यवर्गादिः । चउप्पय गजतुरगादयः चतुपदाः । जाणाणि शिविकाविमानदिकं यानं । सयणासणे शयनानि आसनानि च । अर्थात् - खेत, वास्तु ( मकान ), धन ( सोना, चाँदी ), धान्य ( चावल आदि), कुप्य ( कपड़े ), भाण्ड ( हिंगमिर्चादि मसाले ), द्विपद ( दो-पाये दास-दासी), चतुष्पद ( चौपाये हाथी, घोड़े आदि ), यान ( पालकी विमान आदि ), शयन ( बिछौने) और आसन ये बाह्य परिग्रह हैं ।
लगभग यही अर्थ पंडित आशाधरजी और आचार्य अमितगतिने भी अपनी टीकाओं में किया है । इन दसमेंसे हम अपने पाठकों का ध्यान द्विपद और चतुष्पद अर्थात् दोपाये और चौपाये शब्दोंकी ओर खींचना चाहते हैं । ये दोनों परिग्रह हैं । जिस तरह सोना चाँदी मकान वस्त्र आदि चीजें मनुष्यकी मालिकीकी समझी जाती हैं उसी तरह दोपाये और चौपाये जानवर भी हैं। चौपाये तो खैर, अब भी मनुष्यकी जायदादमें गिने जाते हैं, परन्तु पूर्वकालमें दास-दासी भी जायदाद के अन्तर्गत थे । पशुओंसे उनमें यही भिन्नता थी कि उनके चार पाँव होते हैं और इनके दो । पाँचवें परिग्रह त्यागवत के पालन में जिस तरह और सब चीज़ोंके छोड़ने की जरूरत है उसी तरह इनकी भी । परन्तु शायद इन द्विपदोंको स्वयं छूटनेका अधिकार नहीं था । दास-दासियोंका स्वतंत्र व्यक्तित्व कितना था, इसके लिए देखिएसविता पुण गंथा वर्धति जीवे सयं च दुक्खति ।
पावं च तणिमित्तं परिग्गहं तस्स से होई ॥। ११६२ ॥
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विजयोदया टीका -- सच्चित्ता पुण गंथा वर्धति जीवे गंथा परिग्रहाः दासीदास - गोमहिष्यादयो नन्ति जीवान् स्वयं च दुःखिता भवन्ति । कर्मणि नियुज्यमानाः कृष्यादिके पापं च स्वपरिगृहीतजीवकृतासंयमनिमितं तस्य भवति ।
अर्थात् — जो दासी दास गाय भैंस आदि सचित्त ( सजीव ) परिग्रह हैं, वे जीवोंका घात करते हैं और खेती आदि कामों में लगाये जानेपर स्वयं दुखी होते हैं । इसका पाप इनके स्वीकार करनेवाले या मालिकों को होता है । क्योंकि मालिकों के निमित्तसे ही वे जीववधादि करते हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनका स्वतन्त्र व्यक्तित्व एक तरह से था ही नहीं, अपने किये हुए पाप पुण्यके मालिक भी वे स्वयं नहीं थे । अर्थात् इस तरहके बाह्य परिग्रहों में जो दास-दासी परिग्रह है उसका अर्थ जैसा कि आजकल किया जाता है ' नौकर नौकरानी ' नहीं, किन्तु गुलाम