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आचार्य शुभचन्द्र और उनका समय आचार्य शुभचन्द्रका ' ज्ञानार्णव' या 'योगप्रदीप' दिगम्बर सम्प्रदायका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। परन्तु ये शुभचन्द्र किस संघ या गण गच्छके थे और उनके गुरुका क्या नाम था, इसका अभी तक कोई पता नहीं चला। निदान ग्रन्थकी उपलब्ध प्रतियोंमें तो इसका कोई संकेत नहीं मिलता। शुभचन्द्र नामके और भी कई आचार्य हो गये हैं', परन्तु वे सब इनसे भिन्न मालूम होते हैं ।
विश्वभूषण भट्टारकके 'भक्तामर-चरित' नामक संस्कृत ग्रन्थकी उत्थानिकामें शुभचन्द्र और भर्तृहरिकी एक लम्बी कथा दी है जिसके अनुसार शुभचन्द्र तथा भर्तृहरि उज्जयिनीके राजा सिन्धुलके पुत्र थे और सिन्धुलके पैदा होनेके पहले उनके पिताने मुंजको एक पूंजके खेतमें पड़ा हुआ पाकर पाल लिया था। एक दिन शुभचन्द्र और भर्तृहरिके असीम बलको देखकर मुंजने उन्हें मरवा डालनेका विचार किया और इसका पता लग जानेपर उन दोनोंको संसारसे विरक्ति हो गई। तब शुभचन्द्रने तो जैनधर्मकी दीक्षा ले ली और भतृहरिने कौल या तांत्रिक मतकी । भतृहरिने बारह वर्षमें जो अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की उनमें एक ऐसे रसकी सिद्धि भी थी जिसके संयोगसे ताँबा सोना हो जाता था। यह रस उन्होंने अपने भाईको दिया, परन्तु भाई शुभचन्द्रने उसे तुच्छ समझकर फेंक दिया और अपने पैरोंके नीचेकी धूल डालकर एक पूरीकी पूरी शिला सोनेकी बना दी ! भतृहरिको अपनी तुच्छताका भान हुआ और अन्तमें उन्होंने भी जिन-दीक्षा ले ली। फिर उन्हें भुनि-मार्गमें दृढ करने और सच्चे योगका ज्ञान करानेके लिए शुभचन्द्रने इस
१ एक शुभचन्द्रका जिक्र श्रवणबेल्गोलके ४३ वें नम्बरके शिलालेखमें है जो गण्डविमुक्त मलधारिदेवके शिष्य थे और जिनका स्वर्गवास वि० सं० ११८० में हुआ था, दूसरे शुभचन्द्र उन देवकीर्तिके शिष्य थे जिनका स्वर्गवास वि० सं० १२२० में हुआ था और जिनका ३९ वें शिलालेखमें वर्णन है ।
२ यह कथा रायचन्द्र-शास्त्रमालाद्वारा प्रकाशित 'शानार्णव'के प्रारम्भमें प्रकाशित हुई है।