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तीन महान् ग्रन्थकर्ता
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उत्तरपुराण यद्यपि संक्षिप्त है, उसमें कथा भागकी अधिकता है। फिर भी उसमें कवित्वकी कमी नहीं है और वह सब तरहसे जिनसेनके शिष्यके अनुरूप है।
२ आत्मानुशासन-यह २७२ पद्योंका छोटा-सा ग्रन्थ अपने नामके अनुरूप आत्मापर शासन प्राप्त करने के लिए बहुत ही उत्तम साधन है । इसकी रचनाशैली भर्तृहरिके वैराग्य-शतकके ढंगकी और बहुत ही प्रभावशालिनी है। इसका प्रचार भी खूब है। __३ जिनदत्तचरित्र-यह ग्रन्थ अभीतक हमें देखनेको नहीं मिला । इसका हिन्दी अनुवाद पं० श्रीलालजी काव्यतीर्थने जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्थाद्वारा प्रकाशित किया है परन्तु न तो उक्त अनुवादमें श्लोकोके नम्बर दिये गये हैं और न कोई प्रशस्ति आदि ही दी है जिससे मूलग्रन्थके सम्बन्धमें कुछ विचार किया जा सके । अनुवाद भी भावार्थरूप है । यह नवसर्गात्मक खण्डकाव्य है और साराका सारा अनुष्टुप् श्लोकोंमें है । भावार्थसे जहाँ तक अनुमान किया जा सकता है, रचना प्रौढ और सुन्दर है।
गुरु-शिष्यका लम्बा जीवन वीरसेन-जिनसेनने इतनी लम्बी उम्र पाई थी कि उन्हें शतजीवी कहा जा सकता है।
द्वितीय जिनसेनने अपना हरिवंशपुराण श० सं० ७०५ में समाप्त किया था और उसकी उत्थानिकामें उन्होंने वीरसेनको कविचक्रवर्ती और उनके शिष्य जिनसेनको पार्वाभ्युदयकी कीर्तिशालिनी रचनाका कर्त्ता कहाँ है । हरिवंशके बारह हजार श्लोकोंके बनानेमें यदि पाँच ही वर्ष लगे हों और यदि उसकी उत्थानिका ग्रन्थ प्रारम्भ करते समय ही लिखी गई हो, तो मानना होगा कि श० सं० ७०० से पहले ही पार्वाभ्युदयकी रचना हो चुकी थी और यदि उस समय कविकी अवस्था २५ वर्षकी ही मान ली जाय, तो वीरसेनके शिष्य जिनसेनका जन्म शं० सं० ६७५ के लगभग हुआ होगा और यदि शिष्यसे गुरुकी उम्र पन्द्रह वर्ष
१ देखो विद्वद्रत्नमाला पृ० ७४-७७ २ देखो ऊपर पृ०५०९ में उद्धत 'यामिता' आदि श्लोक ।