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जैनसाहित्य और इतिहास
मणिमीमांसाविवरण, वाचस्पतितत्त्वकौमुदी आदि कर्कश तर्क-ग्रन्थोंके, जैनेन्द्र, शाकटायन, ऐन्द्र, पाणिनि, कलाप आदि व्याकरण-ग्रन्थोंके, त्रैलोक्यसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, सुविज्ञप्ति (?), अध्यात्माष्टसहस्री ( ? ) और छन्दोलकार, आदि शास्त्र-समुद्रोंके पारगामी थे । उन्होंने अनेक देशोंमें विहार किया था, अनेक विद्यार्थियोंका वे पालन करते थे, उनकी सभामें अनेक विद्वजन रहते थे, गौड, कलिंग, कणीट, तौलव, पूर्व, गुर्जर, मालव, आदि देशोंके वादियों को उन्होंने पराजित किया था और अपने तथा अन्य धर्मोंके वे बड़े भारी ज्ञाता थे ।" इसमें भी अतिशयोक्ति तो होगी ही।
भ० शुभचन्द्रजीके बनाये हुए अनेक ग्रन्थ है और प्रायः उन सभीकी प्रशस्तियोंमें उन्होंने अपनी गुरुपरम्पराका परिचय दिया है। स्वामिकार्तिकयानुप्रेक्षाटीकाकी प्रशस्ति टिप्पणीमें दी जा चुकी है। पाण्डवपुराणकी प्रशस्ति भी हमारे पास है जिसके ७२ से ८६ नम्बरतकके पद्योंमें उनके नीचे लिखे ग्रन्थोंका उल्लेख है१–चन्द्रनाथचरितं चरितार्थ पद्मनाभचरितं शुभचन्द्रम् ।
मन्मथस्य महिमानमतन्द्रो जीवकस्य चरितं च चकार ।।७२॥ चन्दनायाः कथा येन दृब्धा नान्दीश्वरी तथा । आशाधरकृतार्चायाः वृत्तिः सद्वृत्तिशालिनी ।। ७३ ॥ त्रिंशञ्चतुर्विशतिपूजनं च सवृत्तसिद्धार्चनमव्यधत्त ।
सारस्वतीयार्चनमत्र शुद्धं चिन्तामणीयार्चनमुच्चरिष्णुः ॥ ७४ ।। श्रीकर्मदाहविधिबन्धुरसिद्धसेवां नानागुणौघगणनाथसमर्चनं च । श्रीपार्श्वनाथवरकाव्यसुपन्जिकां च यः संचकार शुभचन्द्रयतीन्द्रचन्द्रः ॥७५।।
उद्यापनमदीपिष्ट पल्योपमविधेश्च यः । चारित्रशुद्धितपसश्चतुस्त्रिद्वादशात्मनः ।। ७६ । संशयिवदनविदारणमपशब्दसुखण्डनं परं तर्कम् । सत्तत्त्वनिर्णयं वरस्वरूपसंबोधिनी वृत्तिम् ।। ७७ अध्यात्मपद्यवृत्तिं सर्वार्थापूर्वतोभद्रम् । योऽकृतसयाकरणं चिन्तामणिनामधेयं च ।। ७८