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छान-बीन १–संघी, संघवी, सिंघई, सिंगई ये सब शब्द ' संघपति के अपभ्रंश हैं । संघपतिके प्राकृत रूप ' संघवई' 'संघवइ' होते हैं । गुजरात काठियावाड़में प्रचलित ' संघवी ' शब्द इससे बिलकुल नजदीकका है । यह — संघवी' ही बुन्देलखंड आदिमें 'सिंघई' या 'सिंगई' हो गया है । राजपूतानेका 'संघी' या 'सिंघी' पद भी इसीका रूप है।
प्राचीन कालमें धनी-मानी लोग तीर्थयात्राके लिए बड़े बड़े संघ निकालते थे, जिनमें मुनि-आर्थिका-श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध संघ होता था। उन दिनों यात्राकार्य बड़ा कठिन था। सबकी जान-मालकी रक्षा करना, यात्रामें किसीको किसी प्रकारका कष्ट न होने देना, सारा प्रबन्ध करना, सारा खर्च उठाना, यह साधारण काम नहीं था। इसका भार जो कोई उठाता था, शायद वही संघपति कहलाता था।
श्वेताम्बर सम्प्रदायमें शत्रुजय, गिरनार आदिके लिए संघ निकालने की परम्परा अनवच्छिन्नरूपसे अबतक चली आ रही है और अब भी इस तरहके संघ निकालनवाले संघपतिकी पदवीसे विभूषित किये जाते हैं, परन्तु दिगम्बर-सम्प्रदायमें बीचमें यह परम्परा नष्ट-सी हो गई थी। उसके पहलेके अवश्य ही इसके बहुतसे प्रमाण मिलते हैं । फिर भी इस पदवीका मोह नष्ट नहीं हुआ। इसलिए संघ निकालने के बदले जो लोग भगवानका गज-रथ निकालने लगे, उन्हें भी पीछेसे यह पदवी दी जाने लगी । अब बुन्देलखण्ड और सी० पी० की परवार, गोलापूर्व, गोलालारे आदि जातियोंके लोग गजरथ निकालकर ही : सिंघई' या 'सिंगई' बन जाते हैं, संघ निकालनेकी बातको तो शायद वे भूल ही गये हैं। __ खण्डेलवाला और दूसरी कुछ जातियों में भी 'संघी' पद है । परन्तु जान पड़ता है, वह पुराने संघपतियोंके ही वंशमें चला आया हुआ पद है, गजरथ चलाकर प्राप्त किया हुआ नहीं।