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ज्ञानभूषण और शुभचन्द्र
तत्त्वज्ञानतरंगिणीकी प्रशस्तिसे मालूम होता है कि वह विक्रम संवत् १५६० में बनी है ।
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'जैन-धातु- प्रतिमा-लेख संग्रह ' में प्रकाशित बीसनगर (गुजरात ) के शान्तिनाथके श्वेताम्बर मन्दिरकी एक दिगम्बर प्रतिमाके लेखँसे और पैथापुरके श्वे ० मन्दिरकी दि० प्रतिमा के लेखसे मालूम होता है कि वि० सं० १५५७ और १५६१ में ज्ञानभूपणजी भट्टारक - पदपर नहीं थे किन्तु उनके शिष्य विजयकीर्ति थे और वे १५५७ के पहले ही इस पद को छोड़ चुके थे । इस लिए तत्त्वज्ञानतरंगिणीकी रचना उन्होंने उस समय की है जब भट्टारकपदपर विजयकीर्ति थे ।
पूर्वोक्त 'जैन धातु प्रतिमा लेख्नसंग्रह ' नामक ग्रन्थ में विक्रम संवत् १५३४-३५ और १५३६ के तीन प्रतिमा-लेख और भी हैं जिनसे मालूम होता है कि उक्त संवतों में ज्ञानभूषण भट्टारकपदपर थे | भट्टारक पद छोड़ने के बाद भी वे बहुत समयतक जीवित रहे हैं ।
भट्टारक शुभचन्द्र भी बहुत बड़े विद्वान् थे । त्रिविधविद्याधर ( शब्दागम, युक्त्यागम और परमागमके ज्ञाता ) और पद्मापाकविचक्रवर्ती ये उनकी पदवियाँ थीं। पट्टावलीके अनुसार वे " प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, पुष्पपरीक्षा ( ? ) । परीक्षामुख, प्रमाणनिर्णय, न्यायमकरंद, न्याय कुमुदचन्द्र, न्यायविनिश्चय, श्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, आप्तमीमांसा, अष्टसहस्री, चिन्ता
१ यदैव विक्रमातीताः शतपञ्चदशाधिकाः । पष्ठिसंवत्सरा जातास्तदेयं निर्मिता कृतिः ॥ ५३ ॥
२ देखो श्रीबुद्धिसागरसूरिसम्पादित 'जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, ' प्रथम भाग, पृष्ठ ८७ और १२३ ।
३ -“ सं० १५५७ वर्षे माघवदि ५ गुरौ श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यांन्वये भ० सकलकीतिस्वत्पट्टे भ० श्रीभुवनकीर्तिस्तत्प भ० श्रीज्ञानभूषणस्तपट्टे भ० श्रीविजयकीर्तिगुरूपदेशात् हूंबडशातीय. एते श्रीशान्तिनाथं नित्यं प्रणमन्ति । " ज्ञानभूषण भट्टारक श्रीविजयकीर्ति उप
४–“ सं० १५६१ चैत्रवदि ८ शुक्रे मूलसंघे म० देशात् हुम्बड़ कडुआ श्रीनेमिनाथबिम्बं ... ।
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५-देखो नं० ६७२, १५०९ और ५६७ के लेख ।