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ज्ञानभूषण और शुभचन्द्र श्री जिनचन्द्रसूरिके सिद्धान्तसारके भांध्यमें यद्यपि भाष्यकारने अपना कोई स्पष्ट परिचय नहीं दिया है और न उसमें कोई प्रशस्ति ही है; परन्तु मंगलाचरणके नीचे लिखे श्लोकसे मालूम होता है कि वह भ० ज्ञानभूषणका बनाया हुआ है
श्रीसर्वशं प्रणम्यादौ लक्ष्मीवीरेन्दुसेवितम् ।
भाष्यं सिद्धान्तसारस्य वक्ष्ये ज्ञानसुभूषणम् ॥ इसमें सर्वज्ञको जो ज्ञानसुभूषण विशेषण दिया गया है, वह निश्चय ही भाष्यकर्ताका नाम है। और भी कई ग्रन्थकर्ताओने मंगलाचरणों में इसी तरह अपने नाम प्रकट किये हैं। इसके सिवाय ' लक्ष्मीवीरेन्दुसेवितम् ' पदसे यह भी मालूम होता है कि लक्ष्मीचन्द्र और वीरचन्द्र नामके उनके ( ज्ञानभूषणके ) कोई शिष्य या प्रशिष्य थे, जिनके पढ़ने के लिए उक्त भाष्य बनाया गया है । ज्ञानभूषण के प्रशिष्य शुभचन्द्राचार्यकी बनाई हुई स्वामिकार्तिकेयानुपेक्षा टीकाकी प्रशस्तिके १०-१५ वें श्लोकमें, जो कि आगे टिप्पणी उद्धृत की गई है, इन लक्ष्मीचन्द्र और वीरचन्द्रका उल्लेख है और उस उल्लेखसे हम निश्चय पूर्वक कह सकते हैं कि भाष्यके मंगलाचरणका ' लक्ष्मीवीरेन्दुसेवितम् ' पद उन्हींको लक्ष्य करके लिखा गया है।
भट्टारक ज्ञानभूषण मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके आचार्य थे । उनकी गुरुपम्पराका प्रारंभ भ० पद्मनन्दिसे होता है । पद्मनन्दिसे पहलेकी परंपराका अभी तक ठीक ठीक पता नहीं लगा है। १ पद्मनन्दि-२ सकलकीर्ति-३ भुवनकीर्ति और ४ ज्ञानभूषण, यह ज्ञानभूषणकी गुरुपरम्पराका क्रम है ।
ज्ञानभूषणके बाद पाँचवें विजयकीर्ति और फिर उनके शिष्य छठे शुभचन्द्र हुए हैं और इस तरह शुभचन्द्र ज्ञानभूषणके प्रशिष्य हैं । प्रत्येक भट्टारकके अनेकानेक शिष्य होते थे; परन्तु उपर्युक्त शिष्य-क्रममें केवल उन्हींका नाम दिया
१ माणिकचन्द्र-जैन-ग्रन्थमालाके २१ वे ग्रन्थ · सिद्धान्तसारादिसंग्रह ' में यह प्रका. शित हुआ है।