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जैनसाहित्य और इतिहास
इससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अमोववर्ष एकान्तवाद छोड़कर स्याद्वादी या जैन हो गये थे और उन्होंने सम्यक्चारित्र धारण कर लिया था । ___ यह उत्थानिका जिस समय लिखी गई है उस समय ऐसा मालूम होता है कि उन्होंने राज्य तो नहीं छोड़ा था, परन्तु उनकी वृत्ति युद्धकी ओरसे हट गई थी और उनका कोप बन्ध्य ( निष्फल) हो गया था, अर्थात् इसके बाद ही उन्होंने विवेकपूर्वक राज्य छोड़ दिया होगा और तभी प्रश्नोत्तररत्नमाला लिखी होगी।
३ इसमें तो सन्देह ही नहीं कि अमोघवर्षकी जैनधर्मके प्रति बहुत सहानुभूति थी, तभी न शाकटायनने अपने व्याकरणकी टीकाका नाम अमोघवृत्ति रक्खा,
और उन्हींके नामसे वीरमेन-जिनसेनने अपनी टकिाओंके नाम धवला जयधवला रक्खे और जिनसेन स्वामीने उनकी इतनी प्रशंसा की जितनी शायद ही जैन साधुने किसी राजाकी की होगी। उनकी कीर्तिके सामने गुप्त नरेशकी कीर्तिको गुप्त और शककी कीर्तिको मशक (मच्छर) तुल्य बतलायां । भरत सगरादि प्राचीन कालके राजाओंसे भी उनका यश विस्तृत और सारे राजाओंसे बढ़ चढ़कर वर्णन कियों । एसी दशामें यदि उनकी वह सहानुभूति ही आगे चलकर पूर्ण श्रद्धा परिणत हो गई हो, तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । ___ इसके विरुद्ध यह कहा जाता है कि अमोघवर्षके जो दान-पत्र मिले हैं, उनमें शिवकी स्तुति की गई है, उनमें शिव, शिवलिंग आदिके चिह्न हैं, और उसे महाविष्णुराज्यबोल ( महाविष्णु राज्यके समान) कहा है । अतएव वह जैन हो गया था, यह कैसे कहा जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि राज्योंके कार्य प्रायः मशीन के माफिक चला करते हैं और वे कार्य कुल-परम्पराके अनुसार जैसे चलते आये हैं वैसे ही चलते रहते हैं । राष्ट्रकूटोंके दान-पत्र जैसे पहलेसे लिखे जाते थे, उसी पद्धतिपर अमोघवर्षके दानपत्र भी लिखे गये और उनमें वंश
१ गुर्जरनरेन्द्रकीर्तेरन्तः पतिता शशाङ्कशुभ्रायाः ।
गुप्तैव गुप्तनृपतेः शकस्य मशकायते कीर्तिः ॥ १२ २ भरतसागरादिनरपतियशांसि तारानिभेन संहृत्य । गुर्जरयशसो महतः कृतोऽवकाशो जगत्सृजा नूनं ।। १४ इत्यादि सकलनृपतीनातिशय्य पयःपयोधिफेनाच्छा । गुर्जरनरेन्द्रकीर्तिः स्थयादाचन्द्रतारमिह भुवने ॥ १५