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आचार्य शुभचन्द्र और उनका समय
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समय भी अभी तक अनिर्णीत है, इसलिए वह एक तरहसे निरुपयोगी ही है इतना ही कहा जा सकता है कि शुभचन्द्र अमृतचन्द्र के परवर्ती हैं ।
एक प्राचीन प्रति पाटण (गुजरात) के खेतरवसी नामक श्वेताम्बर जैन-भण्डारमें (नं० १३) श्रीशुभचन्द्राकार्यकृत ज्ञानार्णवकी वैशाख सुदी १० शुक्रवार संवत् १२९४ की लिखी हुई एक प्राचीन प्रति है, जिसमें १५४२ साइजके २०७ पत्र हैं । उससे ज्ञानार्णवके समयकी उत्तरसीमा निश्चित हो जाती है । उक्त प्रतिके अन्तमें जो कर्ताओंकी लिपि-प्रशस्तियाँ हैं वे अनेक दृष्टियोंसे बड़े महत्वकी हैं, इस लिए उन्हें यहाँ प्रकाशित किया जाता है
"इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे पंडिताचार्यश्रीशुभचन्द्रविरचिते मोक्षप्रकरणम्।
अस्यां श्रीमन्नृपुर्या श्रीमदहदेवचरणकमलचंचरीकः सुजनजनहृदयपरमानन्दकन्दलीकन्दः श्रीमाथुरान्वयसमुद्रचन्द्रायमानो भव्यात्मा परमश्रावकः श्रीनेमिचन्द्रो नामाभूत । तस्याखिल-विज्ञानकलाकौशल-शालिनी सती पतिव्रतादिगुणगुणालंकार भूषित शरीरा निजमनोवृत्तिरिवाव्यभिचारिणी स्वर्णानाम धर्मपत्नी संजाता । अथ तयोः समासादितधर्मार्थकामफलयोः स्वकुलकुमुदवनचन्द्रलेखा निजवंश वैजयन्ती सर्वलक्षणालंकृतशरीरा जाहिणि-नाम-पुत्रिका समुत्पन्ना । छ ।
ततो गोकर्ण-श्रीचद्रौ सुतौ जातो मनोरमौ । गुणरत्नाकरौ भव्यौ रामलक्ष्मणसन्निभौ ॥ सा पुत्री नेमिचन्द्रस्य जिनशासनवत्सला । विवेकविनयोपेता सम्यग्दर्शनलांछिता ॥ ज्ञात्वा संसारवैचित्र्यं फल्गुतां च नृजन्मनः । तपसे निरगाद्गेहात् शान्तचित्ता सुसंयता ॥ बान्धवैर्वार्यमाणापि प्रण (य) तैः शास्त्रलोचनैः । मनागपि मनो यस्या न प्रेरणा कश्मलीकृतं । गृहीतं मुनिपादांते तया संयतिकाव्रतं । स्वीकृतं च मनःशुद्धया रत्नत्रयमखंडितम् ।। तया विरक्तयात्यंत नवे वयसि यौवने । आरब्धं तत्तपः कर्तुं यत्सतां साध्विति स्तुतं ॥