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जैनसाहित्य और इतिहास
बल्लाल कविके भोजप्रबन्धके समान इस कथामें भी चाहे जिस पुराने कविको भोजदेवकी सभामें लाकर खड़ा कर दिया गया है । अतएव इस तरहकी कथाओंमें सच्चे इतिहासकी खोज करना ही गलत है । हमें इन कथाओंको छोड़कर स्वतंत्र रूपसे ही आचार्य शुभचन्द्रके और उनके ज्ञानार्णवके समयपर विचार करना चाहिए।
ज्ञानार्णवके प्रारम्भमें समन्तभद्र, देवनन्दि, भट्टाकलंक और जिनसेनका स्मरण किया गया है और इनमें सबसे पिछले जिनसेनस्वामी हैं जिन्होंने जयधवला टीकाका शेषभाग वि० सं० ८९४ में समाप्त किया था । इससे निश्चित हो गया कि ज्ञानार्णवकी रचना वि० सं० ८९४ के बाद किसी समय हुई है । _ अब यह देखना चाहिए कि वि० ८९४ के कितने बाद हुई । ज्ञानार्णवके 'गुणदोषविचार' नामक प्रकरण (पृ० ७५) में नीचे लिखे तीन श्लोक 'उक्तं च ग्रन्थान्तरे' कहकर उद्धृत किये गये हैं
ज्ञानहीने क्रिया पुंसि परं नारभते फलम् । तरोश्छायेव किं लभ्या फलश्रीनष्टदृष्टिभिः ॥ १ ज्ञानं पङ्गो क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकृव्यम् । ततो ज्ञानं क्रिया श्रद्धा त्रयं तत्पदकारणम् ॥ २ हतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया ।
धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पंगुकः ॥ ३ ये तीनों श्लोक यशस्तिलक चम्पूके छठे आश्वास (पृ० २७१) में ज्योंके त्यों इसी क्रमसे दिये हुए हैं। इनमेंसे पहले दोनों स्वयं यशस्तिलककर्त्ता सोमदेवके हैं और तीसरा यशस्तिलको ‘उक्तं च' कहकर किसी अन्य ग्रन्थसे उद्धृत किया गया है। अकलंकदेवके राजवार्तिकमें भी यह श्लोक किंचित् पाठ-भेदके साथ 'उक्तं च' रूपसे उद्धृत पाया जाता है और इससे यह श्लोक किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थका जान पड़ता है । ज्ञानार्णवके कर्ताके लिए ये तीनों ही अन्यकृत थे, इसलिए उन्होंने तीनोंको 'उक्तं च ग्रन्थान्तरे' कहकर उद्धृत कर दिया। यशस्तिलककी रचना वि० सं० १०१६ में हुई है, इस लिए सिद्ध हुआ कि ज्ञानार्णव इसके भी बादका ग्रन्थ है।
ज्ञानार्णव (पृ० १७७ ) में एक श्लोक पुरुषार्थसिद्धयुपायका भी ( 'मिथ्यात्ववेदरागा'आदि) उद्धृत किया गया है, परन्तु उसके कर्ता अमृतचन्द्राचार्यका