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जैनसाहित्य और इतिहास
इस प्रतिमें हमने देखा कि प्राणायाम-सम्बन्धी वे दो ' उक्तं च ' पद्य हैं ही नहीं, जो छपी हुई प्रतिमें दिये हैं और जो आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्रके हैं। तब ये छपी प्रतिमें कहाँसे आये ?
स्व० पं० पन्नालालजी वाकलीवालने पं. जयचन्द्रजीकी भाषा वचनिकाको ही खड़ी बालीमें परिवर्तित करके ज्ञानार्णव छपाया था। इसलिए हमने पं० जयचन्द्रजीकी वचनिकावाली प्रति भी तेरहपन्थी मन्दिरके भंडारसे निकलवाकर देखी। मालूम हुआ कि उन्होंने इन श्लोकोंको उद्धृत करते हुए लिखा है-" इहाँ उक्तं च दोय श्लोक हैं-"
पं. जयचन्द्रजीने अपनी उक्त वचनिका माघ सुदी पंचमी भगुवार संवत् १८०८ को समाप्त की थी। या तो इन श्लोकोंको प्रकरणोपयोगी समझ कर स्वयं पं० जयचन्द्रजीने ही योगशास्त्र परसे 'उक्तं च' रूपमें उठा लिया होगा या फिर उनके पास जो मूल प्रति रही होगी उसमें ही किसीने उद्धृत कर दिया होगा। परन्तु मूलकी सभी प्रतियोंमें ये श्लोक न होंगे । निदान दो सौ वर्षसे पुरानी प्रतियोंमें तो नहीं ही होंगे । पाठकोंको चाहिए कि वे प्राचीन प्रतियोंको इसके लिए देखें ।
लिपिकर्ताओंकी कृपासे 'उक्तं च' पद्योंके विषयमें इस तरहकी गड़बड़ अक्सर हुआ करती है और यह गड़बड़ समय-निर्णय करते समय बड़ी झंझटें खड़ी कर दिया करती है।
ज्ञानार्णवकी छपी हुई प्रतिको ही देखिए । इसके पृष्ठ ४३१ ( प्रकरण ४२ ) के 'शुचिगुणयोगाद्' आदि पद्यको 'उक्तं च' नहीं लिखा है परन्तु तेरहपन्थी मंदिरकी उक्त संस्कृतटीकावाली प्रतिमें यह ' उक्तं च' है । पं० जयचंद्रजीकी वचनिकामें भी इसे 'उक्तं च आर्या' करके लिखा है, परन्तु छपानेवालोंने 'उक्तं च' छोड़ दिया है ! इसी तरह अड़तीसवें प्रकरणमें संस्कृतटीकावाली प्रतिमें और वचनिकामें भी 'शंखेन्दुकुन्दधवला ध्यानाद्देवास्त्रयो विधानेन' आदि
१ पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने भी एक श्लोकके सम्बन्धमें लिखा था कि वह 'शानार्णव ' का नहीं है किन्तु ' इष्टोपदेश' से या किसी पुराने ग्रन्थसे उद्धृत किया गया है, जब कि शानार्णवकी छपी प्रतिमें 'उक्तं च ' न लिखकर उसे मूलका बना दिया गया है -देखो जैनहितैपी भाग, १५, पृ० १९७-९८ में ' ज्ञानार्णवके एक पद्यकी जाँच । '