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चार वाग्भट
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सिंहदेवगणिके कथनानुसार वे महाकवि और एक राज्यके महामात्य थे । कविचान्द्रका टीकाके कर्ता वादिराजने भी उन्हें ' महामात्यपदभृत् ' लिखा है ।
संकरालंकारके उदाहरणमें कविने कहा है कि संसारमें तीन ही रत्न हैं, एक अणहिल्लपाटण नगर, दूसरा कर्णदेवके पुत्र राजा जयसिंहदेव और तीसरा श्रीकलश नामका उनका हाथी । इससे स्पष्ट होता है कि ये वाग्भट गुजरातके सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंहके समकालीन और उनके मंत्री थे ।
जयसिंहका राज्य-काल वि० सं० ११५० से ११९९ तक निश्चित हुआ है। श्वेताम्बराचार्य प्रभाचन्द्रने अपने प्रभावकचरितमें लिखा है कि बाहड़ नामके धी धर्मात्माने गुरुचरणोंमें प्रणाम करके पूछा कि कोई ऐसा प्रशंसनीय कार्य बतलाइए कि जिसमें धन व्यय किया जाय ? तब गुरुने भगवानका मन्दिर बनाने में धनकी सफलता बतलाई और तब वाग्भटने हिमालयके समान धवल और ऊँचा मन्दिर बनवाया और उसमें विराजमान करने के लिए वर्द्धमान जिनकी प्रतिमा भी। वि० सं० ११७८ में मुनिचन्द्रसूरिका समाधिमरण हुआ और उसके एक वर्ष बाद वाग्भटने देवसूरिके द्वारा उक्त मूर्तिकी प्रतिष्ठा कराई। इससे पता लगता
१ इदानीं ग्रन्थकार इदमलंकारकर्तत्वख्यापनाय वाग्भटाभिधस्य महाकवे : महामात्यस्य तन्नाम गाथयैकया निदर्शयति ।
२-अणहिल्लपाटकपुरमवनिपतिः कर्णदेवनृपसूनुः ।
श्रीकलशनामधेयः करी च रत्नानि जगतीह ॥ ३ देखो श्री दुर्गाशंकर शास्त्रीका — गुजरातनो मध्यकालीन राजपूत इतिहास ।' पृ० २२५
४-अथास्ति बाहडो नाम धनवान्धामिकाग्रणीः । गुरुपादान्प्रणम्याथ चक्रे विज्ञापनामसौ ।। आदिश्यतामतिश्लाघ्यं कृत्य यत्र धनं व्यये । प्र राहालये जैने द्रव्यस्य सफलो व्ययः ।। आदेशानन्तरं तेनाकार्यत श्रीजिनालयः । हेमाद्रिधवलस्तुंगो दीप्यकुम्भमहामणिः । श्रीमंता वर्धमानस्याबीभरद्विम्बमुत्तमम् । यत्तेजसा जिताश्चन्द्र......कान्तमणिप्रभाः ॥