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तीन महान् ग्रन्थकर्ता
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टीकाका उल्लेख किया है और कहा है कि सिद्धभूपद्धति ग्रन्थ पद पदपर विषम या कठिन था । परन्तु इस टीकासे वह भिक्षुओंक लिए अत्यन्त सुगम हो गया । __ इस नामपरसे ऐसा अनुमान होता है कि यह क्षेत्रगणितसम्बन्धी ग्रन्थ होगा
और वरिसेनस्वामी बड़े भारी गणितज्ञ तो थे ही जैसा कि उनकी धवला टीकासे मालूम होता है । इस लिए उनके द्वारा ऐसी टीकाका लिखा जाना सर्वथा सम्भव है। परन्तु अभी तक यह ग्रन्थ कहीं प्राप्त नहीं हआ है और न अन्यत्र कहीं इसका उल्लेख ही मिला है । यह भी न मालूम हो सका कि मूल ग्रन्थ किसका है जिसकी कि यह टीका है।
२ धवला टीका-पूर्वोके अन्तर्गत 'महाकर्मप्रकृति' नामका एक पाहुड़ था जिसमें कृति, वेदना आदि चौवीस अधिकार थे । पुष्पदन्त और भूतबलि मुनिने आचार्य धरसेनके निकट इनका अध्ययन करके आदिके छह अधिकारों या खंडोंपर सूत्ररूपमें रचना की जिन्हें षटखण्डागम कहते हैं । उनके नाम हैं जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदना, वर्गणा और महाबन्धे । धवला टीका इनमेंसे आदिके पाँच खण्डोंकी व्याख्या है । छठे महाबन्ध खण्डके विषयमें वीरसेनस्वामीने लिखा है कि स्वयं भूतबलिने महाबन्धको विस्तारके साथ लिखा है अतएव उसकी पुनरुक्त करने की जरूरत नहीं मालूम होती। और फिर पूर्वके चौवीस अधिकारों से शेषके अठारह अधिकारोंकी संक्षिप्त व्याख्या कर दी है जिनपर भूतबलिके सूत्र नहीं हैं । इस भागको उन्होंने चूलिका कहा है और इसे ही छठा खण्ड मानकर धवलाको भी षटखण्डागम कहा जाता है । यह पूरा ग्रन्थ ७२ हजार श्लोक प्रमाण है और संस्कृत-प्राकृतभाषा मिश्र है।
जयधवला टीका---यह आचार्य गुणधरके कषाय-प्राभत सिद्धान्तकी टीका है और सब मिलाकर ६० हजार श्लोक प्रमाण है। इसके प्रारम्भकी बीस १-सिद्धभूपद्धतिर्यस्य टीका संवीक्ष्य भिक्षुभिः ।
टीक्यते हेलयान्येषां विषमापि पदे पदे ॥ ६-उत्तरपुराण प्र० २ यह महाबन्ध भूतबलिकृत है और महाधवलके नामसे प्रसिद्ध है । इसका परिमाण ३०-४० हजार बतलाया जाता है। अभी तक यह प्रकाशमें नहीं आया है। मूडबिद्रीमें इसकी जो प्रति है उसके प्रारंभमें लगभग साढ़े तीन हजार श्लोकप्रमाण ‘सत्कर्मपंजिका' है जो धवलान्तर्गत वीरसेनकृत शेषके अठारह अधिकारोंमेंसे निबन्धनादि चार अधिकारोंके विषमपदोंकी व्याख्यारूप है। इसके कर्ताका अभीतक पता नहीं लग सका।