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जैनसाहित्य और इतिहास
वीरसेन स्वामी वीरसेन स्वामी अपने समयके महान् आचार्य थे । उन्होंने अपनेको सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाण शास्त्रों में निपुण कहा है । जिनसेनने उन्हें वादिमुख्य, लोकवित्, वाग्मी और कविके अतिरिक्त श्रुतकेवलीतुल्य भी बतलाया है और कहा है कि उनकी सर्वार्थगामिनी प्रज्ञाको देखकर बुद्धिमानोंको सर्वज्ञकी सत्तामें कोई शंका नहीं रही थी । सिद्धान्त-समुद्रके जलमें धोई हुई अपनी शुद्ध बुद्धिसे वे प्रत्येकबुद्धोंके साथ स्पर्धा करते थे। गुणभद्रने उन्हें तमाम वादियोंको त्रस्त करनेवाला और उनके शरीरको ज्ञान और चारित्रकी सामग्रीसे बना हुआ कहा है । जिनसेन (द्वितीय) ने उन्हें कविचक्रवर्ती कहा है।
उनके बनाये हुए तीन ग्रन्थोंका उल्लेख मिलता है जिनमें से दो उपलब्ध हैं
१ सिद्ध-भूपद्धति-टीका-उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें गुणभद्रस्वामीने इस १-सिद्धत छंद-जोइसु-वायरण-पमाणसणिउणण ।
भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण ।। ५ ।।-धवला -श्रीवीरसेन इत्याप्त-भट्टारकपृथुप्रथः । स नः पुनातु पूतात्मा वादिवृन्दारको मुनिः ॥ ५५ ॥ लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयं ।।।
वाग्मिता वाग्मिना यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ।। ५६ ॥-आ० पु० ३-यं प्राहुः प्रस्फुरद्बोधदीधतिप्रसरोदयं ।
श्रुतकेवलिन प्राज्ञाः प्रज्ञाश्रमणसत्तमम् ॥ २२ ॥ ४- यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञां दृष्टा सर्वार्थगामिनीं।
जाताः सर्वज्ञसद्भावे निगरेका मनीषिणः ॥ २१ ॥ ५-प्रसिद्धसिद्धसिद्धान्तवार्धिवार्धातशुद्धधीः ।
सार्द्ध प्रत्येकबुद्धैर्यः स्पर्धते धीद्धबुद्धिभिः ॥ २३ ||-ज० घ० ६-तत्र वित्रासिताशेषप्रवादिमदवारणः ।
वीरसेनाग्रणीवरिसेनभट्टारको बभौ ॥ ३ ७-ज्ञानचारित्रसामग्रीमग्रहीदिव विग्रहम् ।
विराजते विधातुं यो विनेयानामनुग्रहम् ।। ४-उत्तरपुराण प्र० ८-जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः ।
वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलंकावभासते ॥ ३९-हरिवंश