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तीन महान् ग्रन्थकर्त्ता
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जिनके दोनों कान अविद्ध होनेपर भी ज्ञान - शलाका से बेधे गये थे', ( इससे ऐसा मालूम होता है कि कर्णवेध संस्कार होने के पहले ही इन्होंने दीक्षा ले ली थी । ) निकट भव्य होनेके कारण मुक्तिरूपी लक्ष्मीने उत्सुक होकर मानों स्वयं ही वरण करनेके लिए जिनके लिए श्रुत-मालाकी योजना की थीं, जिनके द्वारा बचपन से अखंडित ब्रह्मचर्य व्रतका आचरण किये जानेके कारण स्वयंवर-विधान में सरस्वती चित्रलिखित-सी मूढ़ हो रही, जो न तो बहुत सुन्दर थे और न बहुत चतुर, फिर भी अनन्यशरण होकर सरस्वती देवीने जिनकी उपचर्या या सेवा की । बुद्धि, शान्ति और विनय इन स्वाभाविक गुणोंसे जिन्होंने आचार्योंकी आराधना की और गुणोंसे कौन आराधित नहीं होता ? जो शरीर से कृश ( दुबले ) होनेपर भी तपसे कृश नहीं हुए थे । शारीरिक कृशत्व सच्चा कृशत्व नहीं है । जो गुणोंसे कृश होता है वास्तव में वही कृश है । जिन्होंने न तो कापलिका ( सांख्यशास्त्र और पक्षमें तैरनेका घड़ा ) को ग्रहण किया और न अधिक चिन्तन किया, फिर भी जो अध्यात्म विद्यासागर के
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- तस्य शिष्योऽभवच्छ्रीमान् जिनसेनः समिद्धधीः । अविद्धावपि यत्कर्णौ विद्धौ ज्ञानशलाकया || २७ ॥ २ – यस्मिन्नासन्नभव्यत्वान्मुक्तिलक्ष्मीः समुत्सुका । स्वयं वरीतिकामेव श्रौतिं मालामयूयुजत् ॥ २८ ॥ ३ - येनानुचरिता बाल्याद्ब्रह्मव्रतमखण्डितम् । स्वयंवरविधानेन चित्रमूढ़ा सरस्वती ॥ २९ ॥ - यो नातिसुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनिः । तथाप्यनन्यशरणा यं सरस्वत्युपाचरत् ॥ ३० ॥ ५ - धीः शमो विनयश्चेति यस्य नैसर्गिकाः गुणाः । सूरीनाराधयन्ति स्म गुणैराराध्यते न कः ॥ ३१ ॥ ६ - यः कृशोपि शरीरेण न कृशोऽभूत्तपोगुणैः ।
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न कृशत्वं हि शारीरं गुणैरेव कृशः कृशः ॥ ३२ ॥ ७ - यो नागृहीत्कापलिकान्नाप्यचिन्तयदंजसा ।
तथाप्यध्यात्मविद्याब्धेः परंपारमशिश्रियत् ॥ ३३ ॥