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तीन महान् ग्रन्थकर्ता
वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र दिगम्बर-जैन-सम्प्रदायमें एकके बाद एक ये तीन महान् आचार्य ऐसे हुए हैं कि इनकी जोड़ नहीं मिलती । लगातार कई पीढ़ियों तक इन्होंने ज्ञान-ज्योतिको अखण्ड रूपसे प्रज्वलित रक्खा और जैन-साहित्य-भण्डारको विशाल ग्रन्थ-रत्नोंसे समृद्ध किया।
पंचस्तूपान्वय और सेनान्वय ये मूलसंघके 'पंच-स्तूप' नामके अन्वयमें हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय या सेन-संघके नामसे विख्यात हुआ। स्वामी वीरसेन और जिनसेनने तो अपने वंशको पंचस्तूपान्वय ही लिखा है परन्तु गुणभद्रस्वामीने सेनान्वय लिखा है और जहाँ तक हम जानते हैं वीरसेन जिनसेनके सिवाय उनके बादके अन्य किसी भी आचार्यने किसी ग्रन्थमें पंचस्तूपान्वयका उल्लेख नहीं किया। ___ संघोंकी उत्पत्ति, उनका नामकरण, और उनके गण-गच्छोंका इतिहास अभी तक बहुत कुछ अन्धकारमें हैं । इस विषयमें आचार्य इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें जो कुछ लिखा है वह बहुत ही संक्षिप्त और अस्पष्टसा है और ऐसा मालूम होता है कि स्वयं उनके निकट भी यह स्पष्ट न था; फिर भी उससे ऐसा जान पड़ता है कि जैन मुनि पहले बस्तियोंसे बाहर गुहाओं, स्तूपों, अशोक, पुंनाग, १-अजजणंदिसिस्सेणुजवकम्मस्स चंदसेणस्स ।
तह णत्तुवेण पंचत्थूहण्णयभाणुणा मुणिणा ॥ ४ -धवला यस्तपोदीप्तकिरणैर्भव्याम्भोजानि बोधयन् ।
व्यद्योतिष्ट मुनीनेनः पंचस्तूपान्वयाम्बरे ॥ ५ -ज० ध० २-श्रीमूलसंघवाराशौ मुनीनामिव सार्चिषाम् ।
महापुरुषरत्नानां स्थानं सेनान्वयोऽजनि ॥ २ -उत्तरपुराण प्र०