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नेमिचरित-काव्य
काव्य - परिचय
काव्यमाला के द्वितीय गुच्छक में यह काव्य नेमिदूतके नामसे प्रकाशित हुआ है । पर वास्तव में इसका नाम ' नेमिचरित मालूम होता है' । यह 'मेघदूत' के ढँगका काव्य है और मेघदूतके ही चरण लेकर इसकी रचना की गई है । शायद इसीलिए इसे नेमिदूत नाम मिल गया है । परन्तु यथार्थ में इसमें दूतपना कुछ भी नहीं है । न इसमें नेमिनाथ दूत बनाये गये हैं और न उनके लिए कोई दूसरा दूत बनाया गया है । राजीमतीने नेभि भगवानको संसारासक्त करने के लिए जो जो प्रयत्न किये हैं, जो जो अनुनय विनय किये हैं और जो जो विरह व्यथायें सुनाई हैं उन्हीं का वर्णन करके यह हृदयद्रावक काव्य बनाया गया है । अन्तमें राजीमती के सारे प्रयत्न निष्फल हुए । नेमिनाथने उसे संसारका स्वरूप समझाया; विषय-भोगोंका परिणाम दिखलाया, मानव-जन्मकी सार्थकता बतलाई और इसका फल यह हुआ कि राजीमती स्वयं देह-भागों से उदास होकर साध्वी हो गई । यदि अन्त के दो लोकों में ये पिछली बातें न कही गई होतीं, तो इस काव्यका ' राजीमती - विप्रलम्भ या ' राजीमती - विलाप ' अथवा ऐसा ही और कोई नाम अन्वर्थक होता; परन्तु अन्तिम श्लोकों से इसमें नेमिनाथको प्रधानता प्राप्त हो गई है, राजीमती के सारे विरह-विलाप उनके अटल निश्चय और उच्च चरित्रके पोषक हो गये हैं; इसलिए इसमें सन्देह नहीं कि इसका ' नेमिचरित ' नाम बहुत सोच समझ कर रखा गया है ।
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इस काव्यकी रचना सुन्दर और भावपूर्ण है । परन्तु जगह जगह क्लिष्टता आ . प्रवरकवितुः कालिदासस्य काव्यादन्त्यं पादं सुपदरचितान्मेघदूताद्गृहीत्वा । श्रीमन्नमेश्वरितविशदं सांगणस्यांगजन्मा चक्रे काव्यं बुधजनमनः प्रीतये विक्रमाख्यः ||