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जैनसाहित्य और इतिहास
गई है । दूरान्वयता बहुत है । प्रयत्न करनेसे विशेष परिश्रमसे कविका हृद्गत आशय समझमें आता है । पर इसमें कविका दोष नहीं-उसे लाचार होकर ऐसा करना पड़ा है। कविकुलगुरु कालिदासके सुप्रसिद्ध काव्य मेघदूतके प्रत्येक श्लोकके चौथे चरणको अपने प्रत्येक श्लोकका चौथा चरण मानकर कविने इस काव्यकी रचना की है । ऐसी दशामें चौथे चरणोंके शब्दों, वाक्यों, और उनके आशयोंकी अधीनतामें पड़कर कवि और करता ही क्या ? अपने हृद्गत भावोंको दूसरे कविके शब्दों, वाक्यों और आशयोंके द्वारा रुद्ध हुए मार्गमेंसे प्रकट करनेके सिवा उसे कोई गति ही न थी। ऐसी परिस्थितिमें काव्यमें क्लिष्टता आना ही चाहिए। किन्तु इस पराधीन कार्यमें भी कविने जो काव्यकौशल दिखलाया है और जो मार्मिकता दिखलाई है, उससे अनुमान हो सकता है कि यदि कवि अपने भावोंको स्वच्छन्दतापूर्वक प्रकट करनेका, अपनी भावधाराको विना बाधाके कहनेका मौका पाता, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि यह काव्य और भी सुन्दर बन जाता ।
इस काव्यके बनानेमें कविको कितना परिश्रम करना पड़ा होगा इसका अनुमान पाठक तब कर सकेंगे जब मेघदूतको सामने रखकर इस काव्यको पढ़ेंगे
और मेवदूतके चौथे चरणोंके मूल भावोंके साथ इसके चौथे चरणोंके भावोंका मिलान करेंगे । मेरी समझमें यह काम वैसा ही कठिन है जैसा कि आमके एक पौधेको काटकर उसकी पीढ़में दूसरे पौधेकी कलमको जोड़ देना और दोनोंके शरीरको, रसको और चेतनाशक्तिको एक कर देना । पूरे काव्यका पाठ करके हम देखते हैं कि कविने इस कठिन कार्यमें काफी सफलता प्राप्त की है।
काव्यका कर्ता इस काव्यके कर्ताका नाम विक्रम है । वह सांगणका पुत्र था । नेमिचरितके अन्तिम श्लोकसे कविका केवल इतना ही परिचय मिलता है । वह किस समय हुआ, किम वंशमें हुआ, किस स्थानमें उसका निवास था, उसने और किन किन ग्रंथोंकी रचना की, इत्यादि बातोंका कुछ भी पता नहीं चलता।। ___ ऋषभदास नामके एक श्वेताम्बर सम्प्रदायके कवि हो गये हैं जिनके बनाये हुए कुमारपालरास (वि० सं० १६७०), हीरविजयसूरिरास (वि० सं० १६८५) आदि गुजराती भाषाके ग्रन्थ मिलते हैं । मेरे मित्र श्री मोहनलालजी देसाईने इनका काव्य-काल वि० सं० १६५६ से १६८६ तक निश्चित किया है । इनके पिताका नाम संघवी सांगण था और ये खंभातके रहनेवाले थे। पहले हमने