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जैनसाहित्य और इतिहास
४-पृ० ६१ में चन्द्रकीर्ति मुनिके मनकी बन्दना की गई है' और पृ० १४२ में उन्हींके श्रुतबिन्दु नामक ग्रंथका ' तथा चोक्तं श्रुतबिन्दौ' कहकर एक पद्य उद्धृत किया है । श्रवणबेलगोलकी मल्लिषेण-प्रशस्ति ( शिलालेख नं० ५४ ) में इन्हीं चन्द्रकीर्ति मुनिका स्मरण किया गया है और उन्हें श्रुतबिन्दुका कर्त्ता भी बतलाया है। ___ यह शिलालेख फागुन वदी ३ श० सं० १०५० ( वि० सं० ११८५ ) का लिखा हुआ है जिस दिन मल्लिषेणमुनिने आराधनापूर्वक शरीर त्याग किया था । इसमें गोतम गणधरसे लेकर उस समय तकके बीसों आचार्यों और ग्रंथकर्ताओंकी प्रशस्तियाँ लिखी हैं । दुर्भाग्यसे यद्यपि आचार्योंका पूर्वापरसम्बन्ध और क्रमागत गुरु-शिष्यसम्बन्ध नहीं बतलाया है फिर भी लेख बड़े महत्त्वका है और उससे हमें अनेक आचार्योंके विषयमें काफी सूचनायें मिलती हैं। इसमें श्रुतबिन्दुके कर्ता चन्द्रकीर्तिके बाद कर्मप्रकृति भट्टारक, श्रीपालदेव, उनके शिष्य मतिसागर, प्रशिष्य वादिराजसूरि ( पार्श्वचरितके कर्ता ), हेमसेन, दयापाल (वादिराजके गुरुभाई , श्रीविजय, कमलभद्र, दयापाल, शान्तिदेव, गुणसेन, अजितसेन और उनके शिष्य मल्लिषेणका उल्लेख है जिनकी स्मृतिमें उक्त लेख उत्कीर्ण किया गया है । माना कि ये सब नाम समयक्रमसे नहीं दिये गये हैं, इनमेंके बहुतसे विद्वान् शायद समकालीन भी हो, फिर भी चन्द्रकीर्तिको मल्लिषेणकी मृत्युसे पचीस वर्ष पहले, अर्थात् वि० सं० ११६० के लगभगका मानना हमारी समझमें कुछ अयुक्त न होगा। अतएव पद्मप्रभदेवने वि० स० ११६० के बाद अपने टीकाग्रन्थकी रचना की होगी।
१ सकलकरणग्रामालम्बाद्विमुक्तमनाकुलं स्वहितनिरतं शुद्धं निर्वाणकरणकारणम् । शमयममाबालं मैत्रीदयादममन्दिरं निरुपममिदं वन्द्यं श्रीचन्द्रकीर्तिमुनेर्मनः ॥ २ विश्वं यश्श्रुनबिन्दुनावरुरुधे भावं कुशाग्रीयया,
बुध्येवाति महीयसा प्रवचसा बद्धं गणाधीश्वरैः, शिष्यान्प्रत्यनुकम्पय | कृशमतीनैदं युगीनात्सुगीस्तं वाचार्चतचन्द्रकीर्तिगणिनं चन्द्राभकीर्ति बुधाः ॥ ३२