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पद्मप्रभ मलधारिदेव
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नियमसारकी तात्पर्यवृत्तिके प्रारंभमें और पाँचवें अध्यायके अन्तमें वीरनन्दि मुनिकी बन्दना की गई है और इस रूपमें की गई है, जैसे वे उनके गुरु हो । __ मद्रास प्रान्तके पटशिवपुरम् ग्राममें एक स्तंभपर पश्चिमी चालुक्य राजा त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वर देवके समयका श० स० ११०७का एक लेख (नं० २८) है जब कि उसके माण्डलिक त्रिभुवनमल भोगदेव चोल हेजिरा नगरपर राज्य कर रहे थे । उसमें लिखा है कि जब यह जैन-मन्दिर बनवाया गया तब श्री पद्मप्रभ मलधारिदेव और उनके गुरु वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती विद्यमान थे ।।
इससे यह निश्चय हो जाता है कि उक्त लेखमें जिनका जिक्र है वे पद्मप्रभमलधारि यही हैं और उनके गुरु भी वही वीरनन्दि हैं जिनकी तात्पर्यवृत्तिमें बन्दना की गई है । अर्थात् श० सं० ११०७ या वि० सं० १२४२ में पद्मप्रभ और उनके गुरु वीरनन्दि विद्यमान् थे।
पद्मनन्दि-पंचविंशतिकाके कर्ता पद्मनन्दि नामके आचार्य भी अपने गुरुका नाम वीरनन्दि बतलाते हैं । क्या आश्चर्य जो वे यही वीरनन्दि हों और इस तरह पद्मप्रभ और वीरनन्दि एक ही गुरुके शिष्य या गुरु हो । पद्मनन्दि पंचविंशतिकाका ही एक प्रकरण ' एकत्व-सप्तति ' है जो पृथक् ग्रन्थरूपमें भी मिलता है । इस 'एकत्व-सप्तति' के अनेक पद्य नियमसार टीकामें उद्धत किये गये हैं। इससे भी उक्त अनुमानको पुष्टि मिलती है।
वीरनन्दि नामके अनेक आचार्य हुए है । एक वीरनन्दि आचारसारके कर्ता हैं जिन्होंने अपने इस आचारसारपर स्वोपज्ञा कनड़ी टीका श० १०७६ (वि०
१ तद्विद्याढयं वीरनन्दिव्रतीन्द्रम् । २ निर्यापकाचार्यनिरुक्तियुक्तामुक्तिं सदाकर्ण्य च यस्य चित्तम् ।
समस्तचारित्रनिकेतनं स्यात् तस्मै नमः संयमधारिणेऽस्मै ॥ यस्य प्रतिक्रमणमेव सदा मुमुक्षोस्त्यिप्रतिक्रमणमप्यणुमात्रमुच्चैः । तस्मै नमः सकलसंयमभूषणाय श्रीवीरनन्दिमुनिनामधराय नित्यम् । ३ देखो ब्रह्मचारी श्रीशीतलप्रसादद्वारा सम्पादित 'मद्रास मैसूर प्रान्तके प्राचीन नैन स्मारक ।' और एपिग्राफिआ इंडिका सन् १९१६-१७ ।
४ देखो नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति पृ० ४२, ४६ ।