________________
जैनसाहित्य और इतिहास
वादी सिंहका अर्थ है वादिरूपी हाथियों के लिए सिंहके तुल्य । स्पष्ट ही यह एक विशेषण है जो उनके वादिविजेता होने को प्रकट करता है । यह उनका नाम नहीं, विशेषण या पदवी है जो आगे चलकर नाम ही बन गई है ।
और भी अनेक आचार्योंको यह पदवी प्राप्त थी और उसका उपयोग कहीं कहीं उनके नामोंके साथ और कहीं कहीं बिना नामके भी किया जाता था । मल्लिषेण-प्रशस्ति में आचार्य अजितसेनका उनके वादीभसिंह पदके साथ उल्लेख किया गया है' और श्रवणबेलगोलके ४९३ वें शिलालेख में अरूंगलान्वयके श्रीपाल त्रैविद्यदेवको भी वादीभसिंह लिखा है ।
भगवजिनसेनने आदिपुराण के प्रारंभ में अपने पूर्ववर्ती विद्वानोंकी स्तुति करते हुए एकका उल्लेख 'वादिसिंह' नामसे किया है जो कि निश्चयसे किसीकी पदवी है और वह पदवी उस समय इतनी प्रसिद्ध थी कि उसके साथ वास्तविक नाम देनेकी उन्हें आवश्यकता ही प्रतीत न हुई । लघुसमन्तभद्रने भी अपने अष्टसहस्रीटिप्पण में 'आप्तमीमांसा ' को ' वादीभसिंहोपलालित' विशेषण दिया है, जो पदवी ही है, नाम नहीं । इस पदवीपरसे हम तब तक पदवीधर के नामका ठीक ठीक अनुमान नहीं कर सकते जब तक कि उसके लिए कोई दूसरे सबल प्रमाण न हो ।
૪૭૮
अजितसेन और ओडयदेव
सबसे पहले सन् १९१६ में स्व० पं० टी० एस० कुप्पूस्वामी शास्त्रीने गद्यचिन्तामणि की भूमिका में लिखा था कि मलिषेण - प्रशस्ति के अजितसेन और गद्यचिन्तामणि के कती वादीभसिंह एक ही जान पड़ते हैं । परन्तु इसके लिए उन्होंने कोई विशेष प्रमाण उपस्थित नहीं किये थे । उसके बाद पं० के० भुजबल शास्त्रीने उक्त धारणाको पुष्ट करने के लिए हाल ही दो विस्तृत लेख
१ – सकलभुवनपालानम्रमूर्द्धावचद्वस्फुरितमुकुटचूडालीढपादारविन्दः । मदवदखिलवादीभेन्द्र कुम्भप्रभेदी गणभृदजितसेनो भाति वादीभसिंहः ॥ ५७ २ इन्तु निरवद्यस्याद्वादभूषणरुं गणपोषणसमेतरुमागि वादीभसिंह वादिकोलाहल ... श्रीपाल त्रैविद्यदेवर्गे ।
३ कवित्वस्य परा सीमा वाग्मित्वस्य परं पदम् ।
गमकत्वस्य पर्यन्तो वादिसिंहोऽर्च्यते न कैः ॥ ५४