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महाकवि धनंजय
ग्रन्थ-रचना महाकवि धनंजयके नीचे लिखे हुए सिर्फ तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं
१ द्विसन्धान या राघवपाण्डवीय महाकाव्य । अष्टादशसर्गात्मक इस काव्यमें राघव और पाण्डवोंकी अर्थात् रामायण और महाभारतकी कथा इस कुशलतासे ग्रथित की गई है कि उसके एक अर्थमें तो राम-चरित्र निकलता है और सरेमें कृष्णचरित्र । इस पद्धतिका यह सर्वश्रेष्ठ और शायद सबसे पहला काव्य है।
छे अनेक कवियोंने इसीके अनुकरणपर अनेक काव्योंकी रचना की है। उपलब्ध जैन काव्योंके किसी न किसी एक सर्गमें जैनधर्मका स्वरूप रहता है; परन्तु इसमें यह पात नहीं है। इसी तरह प्रायः सभी जैन काव्य मुख्य नायकके निर्वाण-गमनपर समाप्त आते हैं; परन्तु यह निष्कण्टक राज्यप्राप्तिपर ही समाप्त हो गया है । इसकी ये दो वेशेषतायें खास तौरपर विचारणीय हैं । कविने इसमें न तो अपने किसी पूर्ववर्ती
वि या आचार्यका उल्लेख किया है और न अपना ही कोई परिचय दिया । अन्तिम पद्यसे सिर्फ इतना ही मालूम होता है जैसा कि टीकाकारने स्पष्ट किया है कि उनकी माताका नाम श्रीदेवी, पिताका वसुदेव और गुरुका दशरथ था ।
इस ग्रन्थपर दो टीकायें उपलब्ध हैं, एक तो 'पदकौमुदी' जिसके कर्ता विनयचन्द्रके शेष्य और पद्मनन्दिके प्रशिष्य नेमिचन्द्र हैं और दूसरी 'राघव-पाण्डवीय-प्रकाशिका' जसके की परवादिघरट्ट रामभट्टके पुत्र कवि देवर। इनकी रचनाका समय मालूम नहीं हो सका; परन्तु आराके जैनसिद्धान्त-भवनमें ये दोनों टीकायें मौजूद हैं।
तीसरी संस्कृतटीका जयपुरकी पाठशालाके अध्यापक पं. बदरीनाथने पहली पीकाको संक्षिप्त करके तैयार की है और इसी टीकाके सहित यह ग्रन्थ निर्णयसागर प्रेससे प्रकाशित हुआ है।
१ इन टीकाओंका परिचय पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने जैनहितेषी भाग १५, अंक ५ पृ० १५२-५४ में दिया है।