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आचार्य अनन्तकीर्ति आचार्य अनन्तकीर्ति बहुत बड़े यशस्वी तार्किक हो गये हैं। धर्मज्ञसिद्धि या सर्वज्ञसिद्धिके अन्तमें उन्होंने लिखा है
समस्तभुवनव्यापियशसानन्तकीर्तिना।
कृतेयमुज्ज्वला सिद्धिर्धर्मज्ञस्य निरर्गला ॥ उनके बनाये हुए सर्वज्ञसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि नामके दो ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु उनमें कोई प्रशस्ति आदि नहीं है जिससे उनकी गुरुपरम्परा आदिका कुछ पता लग सके । वादिराजसू रिने अपने पार्श्वनाथचरितमें उनका स्मरण इस प्रकार किया है
आत्मनैवाद्वितीयेन जीवसिद्धि निबध्नता ।
अनन्तकीर्तिना मुक्तिरात्रिमार्गेव लक्ष्यते ॥ २४ 'जीवसिद्धिं निबध्नता' पदसे ऐसा मालूम होता है कि उन्होंने जीवसिद्धि ग्रन्थपर कोई निबन्ध या टीका लिखी थी, और यह उसी ' जीवसिद्धि' नामक ग्रन्थकी टीका होगी, जिसका कि उल्लेख आचार्य जिनसेनने अपने हरिवंशपुराणमें इस प्रकार किया है
जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम् ।
वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ।। वादिराजने आचार्य जिनसेनके बाद अनन्तकीर्तिका स्मरण किया है और ऐसा मालूम होता है कि उन्होंने पूर्व कवियोंका स्मरण प्रायः समयक्रमसे किया है। इससे अनन्तकीर्तिका समय जिनसेनके बाद और वादिराजसूरिसे पहले अर्थात् वि० सं० ८४० और १०८२ के बीच मानना चाहिए ।
न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने लिखा है कि सिद्धिविनिश्चय टीकामें आचार्य अनन्तवीर्यने भी एक अनन्तकीर्तिका उल्लेख किया है और वे बहुत करके यही होंगे। इनके वृहत्सर्वज्ञसिद्धि ग्रन्थका न्यायकुमुदचन्द्रपर प्रभाव पड़ा है, अतएव ये प्रभाचन्द्रसे पहलेके होना चाहिए और प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदकी रचना परमार राजा जयसिंहदेवके राज्यमें वि० सं० १११२ के लगभग की है।