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जैन साहित्य और इतिहास
ज्ञानार्णवके २१ से २७ तक के सगँ में शब्दशः और अर्थशः एक जैसा है । अनित्यादि भावनाओंका और अहिंसादि महाव्रतों का वर्णन भी कमसे कम शैली की दृष्टि से समान है । शब्द साम्य भी जगह जगह दिखाई देता है । कुछ नमूने देखिएकिम्पाकफलसंभोगसन्निभं तद्धि मैथुनम् । आपातमात्र रम्यं स्याद्विपाकेऽत्यन्तभीतिदम् । — ज्ञानार्णव पृ० १३४
रम्यमापातमात्रे यत्परिणामेऽतिदारुणम् । किम्पाकफल-संकाशं तत्कः सेवेत मैथुनम् ॥ ७८ ॥
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- योगशास्त्र द्वि० प्र०
विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् । यस्य चित्तं स्थिरीभूतं स हि ध्याता प्रशस्यते ॥ ३ स्वर्णाचल इवाकम्पा ज्योतिः पथ इवामलाः । समीर इव निःसङ्गा निर्ममत्वं समाश्रिताः || १५ - ज्ञानार्णव पृ० ८४-८६ विरतः कामभोगेभ्यः स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः । संवेगहृन्निर्मग्नः सर्वत्र समताश्रयन् ॥ ५ सुमेरुरिव निष्कम्पः शशीवानन्ददायकः । समीर इव निस्संगः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते || १६ योगशास्त्र सप्तम् प्र०
आचार्य हेमचन्द्रका स्वर्गवास वि० सं० १२२९ में हुआ है । विविध विषयोंपर उन्होंने सैकड़ों ग्रन्थोंकी रचना की है । योगशास्त्र महाराजा कुमारपालके कहने से रचा गया था और उनका कुमारपालसे अधिक निकटका परिचय वि० सं० १२०७ के बाद हुआ था । अतएव योगशास्त्र वि० सं० १२०७ से लेकर १२२९ तकके बीच किसी समय में रचा गया है ।
यह तो निश्चित है कि शुभचन्द्र और हेमचन्द्र दोमेंसे किसी एकके सामने दूसरेका ग्रन्थ मौजूद था । परन्तु जबतक शुभचन्द्रका ठीक समय निश्चित् नहीं हो जाता, तब तक ज़ोर देकर यह नहीं कहा जा सकता कि किसने किसका अनुकरण और अनुवाद किया है ।
' उक्तं च ' श्लोकोंकी खोज करते हुए हमें मुद्रित ज्ञानार्णवके २८६ पृ०
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