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आचार्य
शुभचन्द्र और उनका समय
हैं । उक्त विशेषण भी उनके लिए सर्वथा उपयुक्त मालूम होते हैं । ऐसी हालत में प्रश्न होता है कि क्या जाहिणीने स्वयं ग्रन्थकर्त्ताको ही उनका ग्रन्थ लिखकर भेंट किया गया होगा ? असंभव न होनेपर भी यह बात कुछ विचित्र सी जरूर मालूम होती है । यदि ऐसा होता तो प्रशस्ति में आर्यिका की ओर से इस बातका भी संकेत किया जाता कि शुभचन्द्र योगी को उन्हीं की रचना लिखकर भेंट की जाती है । इसलिए यही अनुमान करना पड़ता है कि ग्रन्थकर्ताके अतिरिक्त उन्हीं के नामके कोई दूसरे शुभचन्द्र योगी थे जिन्हें इस प्रतिका दान किया गया है । अक्सर आचार्य-परम्पराओंमें जो नाम एक आचार्यका होता था वही उसके प्रशिष्यका भी मिलता है, जिस तरह धर्मपरीक्षा के कर्त्ता अमितगतिक परदादा गुरुका भी नाम अमितगति था । बहुत संभव है कि जिन शुभचन्द्र योगीको उक्त प्रति दान की गई है, ग्रन्थकर्त्ता उनके ही प्रगुरु ( दादा गुरु ) या प्रगुरुके भी गुरु हों । इसके सिवाय शुभचन्द्र नाम कुछ ऐसा लोकप्रिय रहा है कि इस नामके बीसों आचार्य हो गये हैं ।
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पाटणकी उक्त प्रति वि० सं० १२८४ की लिखी हुई है और आर्यिका जाहिणीवाली प्रति यदि उससे अधिक नहीं पचीस-तास वर्ष पहले की भी समझ ली जाये और ग्रन्थ उस प्रतिसे केवल तीस चालीस वर्ष पहले ही रचा गया हो, तो विक्रमकी बारहवीं शताब्दि के अन्तिम पादसे भी पहले ज्ञानार्णवकी रचनाका समय जा पहुँचता है ।
योगशास्त्र और ज्ञानार्णव
प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र और ज्ञानार्णवमें बहुत अधिक समानता है । योगशास्त्र के पाँचवें प्रकाशसे लेकर ग्यारहवें प्रकाश तकका प्राणायाम और ध्यानवाला भाग ज्ञानार्णवके उन्तीसवेसे लेकर ब्यालीसवें तकके सर्गों की एक तरहसे नकल ही मालूम होता है । छन्द-परिवर्तन के कारण जो थोड़े बहुत शब्द बदलने पड़े हैं उनके सिवाय सम्पूर्ण विषय दोनों ग्रन्थोंमें प्रायः एक-सा है । इसी तरह चौथे प्रकाशमें कषायजयका उपय इन्द्रियजय, इन्द्रियजयका उपाय मनः शुद्धि, उसका उपाय रागद्वेषका जय, उसका उपाय समत्व और समत्वकी प्राप्ति ही ध्यानकी मुख्य योग्यता है, ऐसा जो कोटि-क्रम दिया है, वह भी
१ पहली प्रति नरवर ( मालवा ) में लिखी गई थी और दूसरी गोंडल ( काठियावाड़ ) में । मालवेसे गोंडल उस समयकी दृष्टिसे काफी दूर है ।