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श्रुतसागरसूरि
१८४२ की लिखी हुई है । श्लोक संख्या नौहजार है । यह अभी तक प्रकाशित नहीं हुई । इसकी एक भाषावचनिका भी हो चुकी है ।
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तत्त्वत्रयप्रकाशिका - श्रीशुभचन्द्राचार्य के ज्ञानार्णव या योगप्रदीपके अन्तर्गत जो गद्यभाग है, यह उसीकी टीका है । इसकी एक प्रति स्व० सेठ माणिकचन्द्रजीके ग्रन्थ- संग्रह में है ।
४ - जिनसहस्रनाम टीका - यह पं० आशाधरकृत सहस्रनामकी विस्तृत टीका है । इसकी भी एक प्रति उक्त सेठजीके ग्रन्थसंग्रह में है । पं० आशा धरने अपने सहस्रनामकी स्वयं भी एक टीका लिखी थी जो उपलब्ध है ।
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५ - औदार्यचिन्तामणि - यह प्राकृत व्याकरण है और हेमचन्द्र तथा त्रिविक्रमके व्याकरणोंसे बड़ा है । इसकी प्रति बम्बई के ए० पन्नालाल सरस्वतीभवनमें है (४६८ क ), जिसकी पत्रसंख्या ५६ है । यह स्वोपज्ञवृत्तियुक्त है ।
६- महाभिषेक- टीका - पं० आशाधरके नित्यमहोद्योतकी यह टीका है । यह उस समय बनाई गई है जब कि श्रुतसागर देशव्रती या ब्रह्मचारी थे ।
७- व्रतकथाकोश- इसमें आकाशपंचमी, मुकुटसप्तमी, चन्दनषष्ठी, अष्टाका आदि व्रत की कथायें हैं । इसकी भी एक प्रति बम्बई के सरस्वती भवन में है और यह भी उनकी देशव्रती या ब्रह्मचारी अवस्थाकी रचना है ।
- श्रुतस्कन्धपूजा - यह छोटीसी नौ पत्रोंकी पुस्तक है । इसकी भी एक प्रति यहाँके सरस्वती - भवन में है ।
इनके सिवाय श्रुतसागर के और भी कई ग्रन्थों के नाम ग्रन्थसूनियों में मिलते हैं 'परन्तु उनके विषयमें जब तक वे देख न लिये जायँ, निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा
जा सकता ।
समय- विचार
इन्होंने अपने किसी भी ग्रन्थमें रचनाका समय नहीं दिया है परन्तु यह प्रायः निश्चित है कि ये विक्रमकी १६ वीं शताब्दि में हुए हैं। क्योंकि
१ - महाभिषेकटीका की जिस प्रतिकी प्रशस्ति आगे दी गई है वह वि० सं० १५८२ की लिखी हुई है और वह भट्टारक मलिभूषण के उत्तराधिकारी लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मचारी ज्ञानसागरके पढ़ने के लिए दान की गई है और इन लक्ष्मीचन्द्रका उल्लेख श्रुतसागरने स्वयं अपने टीका- ग्रन्थोंमें कई जगह किया है ।