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आचार्य जिनसेन और उनका हरिवंश
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देवनन्दि-ऐन्द्र, चान्द्र, जैनेन्द्र, व्याडि आदि व्याकरणोंके पारगामी।
वज्रसूरि-देवनन्दि या पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दि ही शायद वज्रसूरि हैं जिन्होंने देवसेनसूरिके कथनानुसार द्राविड़ संघकी स्थापना की थी । इनके विचारोंको गणधर देवोंके समान प्रमाणभूत बतलाया है और उनके किसी ऐसे ग्रन्थकी ओर संकेत किया गया है जिसमें बन्ध और मोक्षका सहेतुक विवेचन है। महासेन-सुलोचना कथाके कर्ता । रविषण-पद्मपुराणके कर्ता । जटा-सिंहनन्दि-वरांगचरितके कर्ता ।
शान्त-पूरा नाम शांतिषेण होगा। इनकी उत्प्रेक्षा अलंकारसे युक्त वक्रोक्तियोंकी प्रशंसा की गई है । इनका कोई काव्य-ग्रन्थ होगा।
विशेषवादी-इनके किसी ऐसे ग्रन्थकी ओर संकेत है जो गद्यपद्यमय है और जिनकी उक्तियों में बहुत विशेषता है । वादिराजसूरिने भी अपने पार्श्वनाथचरितमें इनका स्मरण किया है और कहा है कि उनकी रचनाको सुनकर अनायास ही पंडितजन विशेषाभ्युदयको प्राप्त कर लेते हैं।
कुमारसेन गुरु-चन्द्रोदयके कर्त्ता प्रभाचन्द्रके कारण जिनका यश उज्ज्वल हुआ । प्रभाचन्द्र के गुरु ।
वीरसेन गुरु--कवियोंके चक्रवर्ती । जिनसेनस्वामी-उस पाश्र्वाभ्युदयके कर्ता जिसमें पार्श्वजिनेन्द्र के गुणोंकी स्तुति है। __ आगे हम हरिवंशके प्रारम्भके और अन्तके वे अंश देते हैं जिनका इस लेखमें उपयोग किया गया है
जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनं । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ॥ २९ ॥ जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः ।
बोधयंति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥ ३० ॥ १ विशेषवादिगी म्फश्रवणाबद्धबुद्धयः ।
अक्लेशादधिगच्छन्ति विशेषाभ्युदयं बुधाः ॥ २९ २ आदिपुराणके कर्ता जिनसेनने मी इन प्रभाचन्द्रका स्मरण किया हैचन्द्राशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकविं स्तुवे । कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् ॥