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हरिषेणका आराधना-कथाकोश
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एक दोन-पत्र भी मिला है।
काठियावाड़के हड्डाला गाँवमें विनायकपालके बड़े भाई महीपालके समयका भी श० सं० ८३६ ( वि० सं० ९७१) का एक दानपत्र मिला है जिससे मालूम होता है कि उस समय वर्द्धमानपुर या बढ़वाणमें उसके सामन्त चापवंशी धरणीवराहका अधिकार था। इसके सिर्फ १७ वर्ष बाद ही बढ़वाणमें कथाकोशकी रचना हुई है, अतएव उस समय भी बढ़वाणमें प्रतिहारोंके किसी सामन्तका अधिकार होनेकी संभावना है । परन्तु जान पड़ता है हरिषेणने मुख्य महाराजाधिराजका ही नाम दिया है, और उसके राज्यको शक्र ( इन्द्र ) के राज्यके समान बतलाया है, उसके सामन्तका नाम देनेकी जरूरत नहीं समझी है। प्रतिहारवंशके महाराजाओंने कबसे कब तक राज्य किया, इसके ठीक ठीक जाननेके पूरे साधन अभी तक उपलब्ध नहीं हुए हैं। विनायकपालके बाद ही प्रतिहार वंश निर्बल होने लगा था, और उसके सामन्त स्वतंत्र बनने लगे थे।
हरिषेणके बाद पुन्नाटसंघके मुनियोंका काठियावाड़में और कब तक अस्तित्व रहा, इसका कोई पता नहीं चलता।
अन्तमें हरिषेणके कथाकोशके प्रारंभका मंगलाचरण और अन्तकी प्रशस्ति देकर हम इस लेखको समाप्त करते हैं:
श्रियं परां प्राप्तमनन्तबोधं मुनीन्द्रदेवेन्द्रनरेन्द्रवन्धम् । निरस्तकन्दर्पगजेन्द्रदर्प नमाम्यहं वीरजिनं पवित्रम् ॥ १ ॥
विघ्नो न जायते नूनं न क्षुद्रामरलंघनम् ।।
न भयं भव्यसत्त्वानां जिनमंगलकारिणाम् ।। २ ।। जि (ज) नस्य सर्वस्य कृतानुरागं विपश्चितां कर्णरसायनं च । समासतः साधुमनोभिरामं परं कथाकोशमहं प्रवक्ष्ये ॥ ३ ॥
१ इण्डियन एण्टिक्वेरी जिल्द, १५ पृ० १४०-४१ । दानपत्रमें पहले सं० १८८ पढ़ा
गया था और उसे हर्ष संवत् मान लिया था परन्तु म० म० ओझाजीने उसका शुद्ध पाठ सं० ९८८ पढ़ा है । २ देखो ओझाजीका राजपूतानेका इतिहास जिल्द १,