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जैनसाहित्य और इतिहास
पुरुष जयसिंह धराश्रय ( द्वि०), और उनके पुत्र शिलादित्य धराश्रयं ।
राष्ट्रकूटोंसे पहले चौलुक्य सार्व-भौम राजा थे और काठियावाड़पर भी उनका अधिकार था । उनसे यह सार्वभौमत्व श० सं० ६७५ के लगभग राष्ट्रकूटोंने छीना था, इसलिए बहुत संभव यही है कि हरिवंशके रचनाकालमें काठियावाड़पर चौलुक्य वंशकी ही किसी शाखाका अधिकार हो और उसीको जयवराह लिखा हो । पूरा नाम शायद जयसिंह हो और वराह विशेषण । राठोड़ोंका वह सामन्त भी हो सकता है और स्वतंत्र भी।
प्रतीहार राजा महीपालके समयका एक दाने-पत्र हड्डाला गाँव (काठियावाड़) से श० सं० ८३६ का मिला है। उससे मालूम होता है कि उस समय बढ़वाणमें धरणीवराहका अधिकार था जो चावड़ावंशका था और प्रतिहारोंका सामन्त था । इससे एक संभावना यह भी है कि उक्त धरणीवराहका ही कोई ४-६ पीढ़ी पहलेका पूर्वज ही उक्त जयवराह हो ।
बढ़वाणमें ही पुन्नाट संघका एक और ग्रन्थ जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है पूर्वोक्त वर्द्धमानपुर या बढ़वाणमें ही हरिषेण नामके एक और आचार्य हुए हैं जिन्होंने श० सं० ८५३ ( वि० सं० ९८९ ) में अर्थात हरिवंशकी रचनाके १४८ वर्ष बाद ' कथाकोश' नामक ग्रन्थकी रचना की और ये भी उसी पुन्नाट संघके थे जिसमें कि जिनसेन हुए हैं। हरिपेणने अपने गुरु भरतसेन, उनके गुरु श्रीहरिषेण और उनके गुरु मौनि भट्टारक तकका उल्लेख किया है। यदि एक एक गुरुका समय पचीस तीस तीस वर्ष गिन लिया जाय, तो अनुमानसे हरिवंशकी जिनसेन मौनि भट्टारकके गुरुके गुरु हो सकते हैं या एकाध पीढ़ी और पहलेके । यदि जिनसेन और मौनि भट्टारकके बीचके एक दो आचार्योंका नाम और कहींसे मालूम हो जाय तो फिर इन ग्रन्थोंसे वीर-निर्वाणसे श० सं० ८५३ तककी अर्थात् १४५८ वर्षकी एक अविच्छिन्न गुरुपरम्परा तैयार हो सकती है। ___ आ० जिनमेन अपने गुरु कीर्तिपेणके भाई अमितसेनको जो सौ वर्षतक जीवित रहे थे खास तौरसे 'पवित्रपुन्नाटगणाग्रणी' कहा है, जो यह ध्वनित करता है कि शायद पहले पहल वे ही काठियावाड़में अपने संघको लाये थे।
१ देखा महाराष्टीय ज्ञानकोश जिल्द १३, पृ० ७३-७४ २ देखो इण्डियन एण्टिक्वेरी जि० १२, पृ० १९३-९४