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जैनसाहित्य और इतिहास
विकथा हैं । परन्तु ऐसा कहनेवाले मिथ्यादृष्टि चार्वाक नास्तिक हैं । जब ये जिनसूत्रका उल्लंघन करें तब आस्तिकोंको चाहिए कि युक्तियुक्त वचनोंसे उनका निषेध करें । फिर भी यदि वे कदाग्रह न छोड़ें तो समर्थ आस्तिक उनके मुँहपर विष्ठा से लिपटे हुए जूते मारें, इसमें जरा भी पाप नहीं !
इसके आगे चौथी गाथाकी टीका में भी कलिकाल गौतम विना प्रसंगके ही कहते हैं कि जिन-वचनोंको माननेरूप आराधना से रहित पापी लोंका पन्थके अनुयायी नरकादि दुर्गतियों में भ्रमण करते हैं और कदापि मोक्ष नहीं पाते । इसी तरह छट्ठी गाथाकी टीका में भी उन्हें नरकगामी बतलाया है ।
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अधिकतर टीका ग्रन्थ ही श्रुतसागरजीने रचे हैं, परन्तु उन टीकाओं में मूलग्रंथकर्ताके अभिप्रायोंकी अपेक्षा उन्होंने अपने अभिप्रायोंको ही प्रधानता दी है । दर्शनपाहुड़की २४ वीं गाथाकी टीका में उन्होंने जो अपवादवेषकी व्याख्या की है, वह यही बतलाती है । वे कहते हैं कि दिगम्बर मुनि चर्या के समय चटाई आदि से अपने नग्नत्वको ढँक लेता है । परन्तु यह उनका खुदका ही अभिप्राय है, मूलका नहीं । इसी तरह तत्त्वार्थ- टीका ( संयमश्रुतप्रतिसेवनादि सूत्र की टीका ) में जो द्रव्य - लिंगी मुनिको कम्बलादि ग्रहणका विधान किया है, वह भी उन्हींका अभिप्राय है, मूल ग्रंथकर्ताका नहीं ।
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ग्रन्थ-रचना
१ – यशस्तिलकचन्द्रिका - आचार्य सोमदेव के प्रसिद्ध यशस्तिलक चम्पूकी यह टीका है और निर्णयसागर प्रेसकी काव्यमाला में प्रकाशित हो चुकी है । यह अपूर्ण है । पाँचवें आश्वासके थोड़े से अंशकी और छठे अश्वासकी टीका नहीं है । जान पड़ता है, यही उनकी अन्तिम रचना है । इसकी प्रतियाँ अन्य अनेक भंडारोंमें उपलब्ध हैं परन्तु सभी अपूर्ण हैं |
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२ - तत्त्वार्थवृत्ति – यह श्रुतसागरी टीकाके नामसे अधिक प्रसिद्ध है । इसकी एक प्रति बम्बई के ए० पन्नालाल सरस्वती-भवन में मौजूद है जो वि० सं०
१ ‘ आराहणा विरहिया ' जिनवचनमाननलक्षणामाराधनामकुर्वाणा लौंकाः पातकिनः तत्रैव तत्रैव नरकादिष्वेव दुर्गतिषु भ्राम्यन्ति न कदाचिदपि मोक्षं लभन्ते इत्यर्थः ।
२ मूलसंधे परमदिगम्बरा मोक्षं प्राप्नुवन्ति लौकास्तु नरकादौ पतन्ति । ३-४ देखो पृष्ठ ३६३-६४ के टिप्पण ।