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मल्लिषेणसूरि
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प्रशस्तियाँ
(१) तीर्थे श्रीमुलगुन्दनाम्नि नगरे श्रीजैनधर्मालये स्थित्वा श्रीकविचक्रवर्तियतिपः श्रीमल्लिषेणाह्वयः । संक्षेपात्प्रथमानुयोगकथनव्याख्यान्वितं शृण्वतां भव्यानां दुरितापहं रचितवान्निःशेषविद्याम्बुधिः ।। १ वर्षे कत्रिंशताहीने सहस्र शकभूभुजः । सर्वजिद्वत्सरे ज्येष्ठे सशुक्ल पंचमीदिने । २ अनादि तत्समाप्तं तु पुराणं दुरितापहम् । जीयादाचन्द्रतारार्के विदग्धजनचेतसि ।। ३ श्रीजिनसेनसूरितनुजेन कुदृष्टिमतप्रभेदिना गारुडमंत्रवादसकलागमलक्षणतर्कवेदिना । तेन महापुराणमुदितं भुवनत्रयवर्तिकीर्तिना। प्राकृतसंस्कृतोभयकवित्वधृता कविचक्रवर्तिना ॥
-महापुराण
जितकषायरिपुर्गुणवारिधिनियतचारुचरित्रतपोनिधिः ।
जयतु भूपकिरीटविघट्टितक्रमयुगोऽजितसेनमुनीश्वरः ॥ १ है, उसके आदि अन्तमें कहीं ग्रन्थकर्ताका नाम नहीं है और न अन्तमें कोई प्रशस्ति है परन्तु शास्त्रीजीने अपनी भाषाटीकाके प्रत्येक अध्यायकी पुष्पिकामें उसे श्रीसुकुमारसेनमुनिविरचित बतलाया है। मालूम नहीं जिस मूल प्रतिसे उन्होंने भापाटीका लिखी है उसीमें यह नाम दिया है या उन्हें यह अन्य किसी स्रोतसे मालूम हुआ है । मल्लिपेणका तो हय निश्चयसे नहीं है । क्योंकि भाषाटीका (पत्र १६१) में लिखा है ' श्रीमदाशाधरपदामथगणधरा वलयमनुशिष्यते ' अर्थात् यह रचना पं० आाधरके बादकी है । मूलग्रन्थ ( पत्र ८५ ) में लिखा है, ' तथाचोक्तं भट्टहस्तिमलेन ।' अर्थात् हस्तिमलके भी बादकी यह रचना है। इन्द्रनन्दि, पद्मनन्दि, इमडि भट्टोपाध्याय आदिके भी उद्धरण इसमें दिये हैं । स्वयं मल्लिषेणका ज्वालिनीदेवीका स्तोत्र भी ( पत्र ७३ ) संग्रह किया गया है । रावणकृत बालग्रहचिकित्सा भी इसमें संग्रहीत है।
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