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महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु
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ताओं अरवि पुष्पदन्तने वर्षभदेव ही लिखा
पिताका नाम स्वयंभु या स्वयंभुदेव ही लिखा है ।
२ महाकवि पुष्पदन्तने अपने महापुराणुमें जहाँ अपने पूर्वके अनेक ग्रन्थकर्ताओं और कवियोंका उल्लेख किया है वहाँ वे 'चउमुहु' और 'सयंभु'का अलग अलग प्रथमा एकवचनान्त पद देकर हो स्मरण करते हैंचउमुहु सयंभु सिरिहरिसु दोणु, णालोइउ कइईसाणु बाणु। १-५
अर्थात् न मैंने चतुर्मुख, स्वयंभु, श्रीहर्ष और द्रोणका अवलोकन किया, और न कवि ईशान और बाणको । महापुराणका प्राचीन टिप्पणकार भी इन शब्दोंपर जुदा जुदा टिप्पण देकर उन्हें पृथक् कवि बतलाता है। " चउमुहु= कश्चित्कविः । स्वयंभु पद्धडीबद्धरामायणकर्ता आपलीसंघीयः ।" ___३ पुष्पदन्तने आगे ६९ वी सन्धिमें भी रामायणका प्रारंभ करते हुए सयभु और चउमुहुका अलग अलग विशेषण देकर अलग अलग उल्लेख किया है।
४ पं० हरिपेणेने अपने 'धम्मपरिक्खा' नामक अपभ्रंश काव्यमें, जो वि० स० १०४० की रचना है, चतुर्मुख, स्वयंभु और पुष्पदन्त इन तीनों कवियोंकी स्तुति की है और तीनकी संख्या देकर तीनोंके लिए जुदा जुदा विशेषण दिये हैं।
५ हरिवंशपुराणमें स्वयंभु कवि स्वयं कहते हैं कि पिंगलने छन्दप्रस्तार, भामह और दंडीने अलंकार, बाणने अक्षराडम्बर, श्रीहर्षने निपुणत्व और चतुर्मुखने छर्दनिका, द्विपदी और ध्रुवकोंसे जीटत पद्धड़िया दिया--"छंदाणिय-दुवइ-धुवएहिं
१ महाकवि बाणने अपने हर्षचरितमें भाषा-कवि ईशान और प्राकृत-कवि वायुविकारका उल्लेख किया है । देखो, श्री राधाकुमुद मुकर्जीका श्री हर्ष, पृ० १५८
२ कइराउ सयंभु महायरिउ, सो सयणसहासहिं परियरिउ ।
च उमुहहु चयारि मुहाई जहिं, सुकइत्तणु सीसउ काई तहिं ।। अर्थात् कविराज स्वयंभु महान् आचार्य हैं, उनके सहस्रों स्वजन है; और चतुर्मखके तो चार मुख हैं, उनके आगे सुकवित्व क्या कहा जाय ? __ ३ पं० हरिपेण धक्कड़कुलके थे। उनके गुरुका नाम सिद्धसेन था। चित्तोड़ ( मेवाड ) को छोड जब वे किसी कामसे अचलपुर गये थे, तब वहाँ उन्होंने धम्मपरिक्खा बनाई थी।
४ चउमुहु कव्वविरयणे सयंभु वि, पुष्फयंतु अण्णाणु णिसुंभिवि । तिणि वि जोग्ग जेण तं सीसइ, चउमुहमुहे थिय ताम सरासइ ॥ जो सयभु सो दे उ पहाणउ, अह कह लोयालोयवियाणउ। पुष्फयंतु ण वि माणुसु वुच्चइ, जो सरसइए कया वि ण मुच्चइ ।।