________________
वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय
३६९
संभव है कि मेघविजयजीने ये नाम ' नाटक समयसार' पढ़कर ही लिखे हों। बाणारसी मतका स्वरूप प्रकट करते हुए मेघविजयजी कहते हैं
तम्हा दिगंबराणं एए भट्टारगा वि णो पुजा । तिलतुसमेत्तो जेसिं परिग्गहो णेव ते गुरुणो ॥ १६॥ जिणपडिमाणं भूसणमल्लारुहणाइ अंगपरियरणं ।
बाणारसिओ वारइ दिगंबरस्सागमाणाए ॥ २० ॥ अर्थात् दिगम्बरोके भट्टारक भी पूज्य नहीं है । जिनके तिलतुष-मात्र भी परिग्रह है, वे गुरु नहीं हैं । बाणारसीमतवालोंने जिनप्रतिमाओंको भूषणमालायें पहिनाना, केसर लगाना आदि भी दिगम्बर आगोंकी आज्ञासे रोका । __ आजकल जो सम्प्रदाय तेरहपन्थके नामसे प्रसिद्ध है, वह भट्टारकोंको या परिग्रह. धारी मुनियों को अपना गुरू नहीं मानता है और प्रतिमाओंको पुष्पमालायें पहिनाने
और केसर चर्चित करने का भी निषेध करता है । अतएव मेघविजयजीने जिस वाणारसीमतकी चर्चा की है, वह तेरहपन्थ ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता।
पं० बखतरायजीने अपने 'बुद्धिविलास' नामक ग्रन्थमें तेरहपन्थकी उत्पत्ति वि० सं० १६८३ में बतलाई है। यह समय भी मेघविजयजीके वाराणसी मत' की उत्पत्ति-समयसे मिल जाता है, अतएव कहना होगा कि इस मतके प्रवर्तक पं० बनारसीदासजी ही थे।
उस समयकी भारतवर्षकी राजधानी आगरा नगरीमें इस पन्थका उदय हुआ और उसके समीपके जयपुर आदि नगरोंमें इसका शीघ्रतासे प्रचार हुआ। फिर इन्हीं नगरोंके विद्वानोंकी ग्रन्थ-रचनाओंसे जो अधिकांश देशभाषामें की गई, यह पन्थ धीरे धीरे देशव्यापी हो गया और इसके प्रभावसे मठपतियोंकी प्रतिष्ठाका एक तरहसे अन्त ही हो गया।
धरमदास ये पाँच जन, मिलि बैठे इकठौर । . परमारथ-चरचा करें, इनके कथा न और ।। २७ ॥