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जैनसाहित्य और इतिहास
सिरािवकमनरनाहा गएहिं सोलहसएहिं वासेहिं ।
असिउत्तरेहिं जायं बाणारसियस्स मयमेयं ।। १८ ॥ अर्थात् वि० सं० १६८० में यह बनारसीदासका मत उत्पन्न हुआ ।
अह तम्मि हु कालगए कुँअरपालेण तम्मयं धरियं ।।
जाओ तो बहुमण्णो गुरुव्व तेर्सि स सव्वेसि ॥ १९ ॥ अर्थात् उनके ( बनारसीदासके ) कालगत होने पर कुँअरपालने उस मतको धारण किया और तब वह उन सबके गुरुके समान बहुमान्य हो गया ।
बनारसीविलासमें कुँवरपालकी कुछ रचनाओंका संग्रह है । पाठक जानते हैं कि सूक्तमुक्तावलीका पद्यानुवाद बनारसीदास और कुँवरपाल दोनोंका किया हुआ है और उसमें कुँवरपाल और बनारसी मित्र बतलाये गये हैं
कुंवरपाल बानारसी, मित्त जुगल इकचित्त ।
तिनहिं ग्रंथ भाषा कियौ, बहुविध छंद कवित्त ।। पं० बनारसीदासजीका देहान्त वि० सं० १६९८ के बाद किसी समय हुआ होगा । क्यों कि अपनी आत्म-कथा (अर्धकथानक) उन्होंने इसी सम्वत्में समाप्त की है। मेघविजयजीके आगरे पहुँचनेके समय जब कि उन्होंने युक्तिप्रबोधकी रचना की है, बनारसीदासजी नहीं थे । उनके विचारोंका प्रचार करनेवाले मित्र कुँवरपाल भी उस समय न थे।
मेघविजयजीने कुंवरपालके सिवाय बनारसीदासजीके अन्य चार साथियोंके नाम और भी बतलाये हैं -- पं० रूपचन्द्र, चतुर्भुज, भगवतीदास और धर्मदास । इनका उल्लेख बनारसीदासजीने अपने नाटक समयसारमें भी किया है। बहुत
१-मंबावजयजीने अपनी 'चन्द्रप्रभा' नामक व्याकरण-टीकाकी रचना वि० सं० १७५७ में आगरेमें रहकर की थी। हमारा अनुमान है कि 'युक्तिप्रबोध' भी उन्होंने उसी समय आगरेमें बनाया होगा और वहीं रहते समय ही उन्हें ' बाणारसी मत ' का परिचय मिला होगा। यदि यह ठीक है तो कहना होगा कि कुँवरपाल भी उस समय जीवित न थे। ___ २-इत्थंतरे य पुरिसा अवरेवि य पंच तस्स सम्मिलिया । (टीका)—कालान्तरे अपरे पि पंचपुरुषा रूपचन्द्रपण्डितः, चतुर्भुजः, भगवतीदासः कुमारपाल: धर्मदासश्चेति नामानो मिलिताः ।
३-रूपचन्द्र पंडित प्रथम दुतिय चतुर्भुज नाम ।
तृतिय भगौतीदास नर, कौरपाल गुनधाम ।। २६ ॥