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वादिराजसूरि
परिचय और कीर्त्तन
दिगम्बरसम्प्रदाय में जो बड़े बड़े तार्किक हुए हैं, वादिराजसूरि उन्हीं में से एक हैं । वे प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्रादिके कर्त्ता प्रभाचन्द्राचार्य के समकालीन हैं और उन्हीं के समान भट्टाकलंकदेव के एक न्याय-ग्रन्थके टीकाकार भी ।
तार्किक होकर भी वे उच्चकोटिके कवि थे और इस दृष्टिसे उनकी तुलना सोमदेवसूरिसे की जा सकती है जिनकी बुद्धिरूप गऊने जीवन-भर शुष्क तर्करूप घास खाकर काव्यदुग्धसे सहृदयजनों को तृप्त किया था ।
वादिराज द्रमिल या द्राविड़ संघ के थे । इस संघ में भी एक नन्दिसंघ था, जिसकी अरुंगल शाखा के ये आचार्य थे । असंगल किसी स्थान या ग्रामका नाम था, जहाँ की मुनिपरम्परा अरुंगलान्वय कहलाती थी ।
षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वादविद्यापति और जगदेकमल्लवादि उनकी उपाधियाँ थीं । एकीभावस्तोत्रके अन्तमें एक श्लोक है जिसका अर्थ है कि सारे शाब्दिक ( वैयाकरण ), तार्किक और भव्यसहायक वादिराजसे पीछे हैं, अर्थात् उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता । एक शिलालेख में कहा है कि सभामें वे अकलंकदेव ( जैन ), धर्मकीर्ति (बौद्ध), बृहस्पति ( चार्वाक ), और गौतम ( नैयायिक ) के तुल्य हैं और इस तरह वे इन जुदा जुदा धर्मगुरुओंके एकीभूत
१ - देखो 'द्रविड संघमें भी नन्दिसंघ ।' पृ० ५४ ।
२ षट्तर्कषण्मुख स्याद्वादविद्यापतिगलु जगदेव मल्लवादिगल एनिसिद श्रीवादिराजदेवरुम् ।
- मि० ० राइसद्वारा सम्पादित नगर ताल्लुकाके इन्स्क्रप्शन्स नं० ३६
३ वादिराजमनु शाब्दिकलोको वादिराजमनु तार्किक सिंहः ।
वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहायः । — एकीभावस्तोत्र