________________
जैनसाहित्य और इतिहास
' कट्टगेरी ' में ही रही होगी । इस स्थान में चालुक्य विक्रमादित्य ( द्वि० ) का ई० स० १०९८ का कनड़ी शिलालेख भी मिला है जिससे उसका चालुक्यराज्य के अन्तर्गत होना स्पष्ट होता है । कट्टगा नामकी कोई नदी उस तरफ नहीं है ।
४००
मठाधीश
पार्श्वनाथचारित की प्रशस्ति में वादिराजसूरिने अपने दादागुरु श्री गलदेवको 'सिंहपुरैक मुख्य' लिखा है और न्यायविनिश्वयविवरणकी प्रशस्ति में अपने आपको भी 'सिंहपुरेश्वर ' लिखा है । इन दोनों शब्दों का अर्थ यही मालूम होता है कि वे सिंहपुर नामक स्थानके स्वामी थे, अर्थात् सिंहपुर उन्हें जागीर में मिला हुआ था और शायद वहीं पर उनका मठ था |
श्रवणबेलगोलके ४९३ नम्बरके शिलालेख में जो श० सं० १०४७ का उत्कीर्ण किया हुआ है - वादिराजकी ही शिष्यपरम्परा के श्रीपाल त्रैविद्यदेवको होय्सल-नरेश विष्णुवर्द्धन पोरसलदेवने जिनमन्दिरों के जीर्णोद्वार और ऋषियोंको आहार-दान के हेतु शल्य नामक गाँवको दान स्वरूप देने का वर्णन है और ४९५ नम्बरके शिलालेखमें— जो श० सं० ११२२ के लगभगका उत्कीर्ण किया हुआ है - लिखा है कि षड्दर्शनके अध्येता श्रीपालदेव के स्वर्गवास होनेपर उनके शिष्य वादिराज (द्वितीय) ने 'परवादिमल्ल जिनालय ' नामका मन्दिर निर्माण कराया और उसके पूजन तथा मुनियों के आहार दान के लिए कुछ भूमिका दान किया ।
इन सब बातोंसे साफ समझमें आता है कि वादिराजकी गुरु शिष्यपरम्परा मठाधीशों की परम्परा थी, जिसमें दान लिया भी जाता था और दिया भी जाता था । वे स्वयं जैनमन्दिर बनवाते थे, उनका जीर्णोद्वार कराते थे और अन्य मुनियोंके आहार दान की भी व्यवस्था करते थे । उनका भव्य सहाय विशेषण भी इसी दानरूप सहायता की ओर संकेत करता है । इसके सिवाय वे राजाओं के दरबारों में उपस्थित होते थे और वहाँ वाद-विवाद करके वादियों पर विजय प्राप्त करते थे ।
(
देवसेनसूरिके दर्शनसार के अनुसार द्राविड़संघ के मुनि कच्छ, खेत, वसति ( मन्दिर ) और वाणिज्य करके जीविका करते थे और शीतल जलसे स्नान
१ इस मुनिपरम्परामें वादिराज और श्री पालदेव नामके कई आचार्य हो गये हैं । ये
वादिराज दूसरे हैं । ये गंगनरेश राचमल्ल चतुर्थ या सत्यवाक्य के गुरु थे ।
I